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पं० पन्नालाल वाकलीवाल
१८९. भारतीय जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाने जैनसिद्धान्तका महत्त्वपूर्ण प्रकाशन किया; और आज भी, अगर स्व० गुरुजीके निर्देशानुसार ही उसका कार्य जारी रहता तो, और जैसी कि स्व० गुरुजीकी भावना थी, आज निस्संदेह वह 'गीता प्रेस गोरखपुर' और 'कल्याण' जैसी आदर्श संस्था हुई होती। पर जैनसमाजका इतना सौभाग्य कहाँ, जो उसे अपने धर्मकी वास्तविकता समझनेका सुन्दर साहित्य उपलब्ध हो?
मैने अपनी आँखोसे गुरुजीको कईबार इसलिए रोते हुए देखा है कि उक्त दोनों संस्थाएँ किसी योग्य, उत्साही और कर्मठ सेवकके हाथ सोप दी जाएँ, भले ही वह न्यायतीर्थादि उपाधिधारी न हो, पर उसमें लगन और जीवन खपा देनेकी भावना होनी चाहिए।
आज, वंगीय अहिंसा परिपद और गला जिनवाणी' का तो नामोनिशान तक मिट चुका है; और भारतीय जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्था जिससे गुरजीका 'गीता प्रेस' का स्वप्न मूर्तिमान हो सकता था, कलकत्ते के किसी एक मकानमे पड़ी अपनी अन्तिम साँसें ले रही है।
काशीके स्याद्वादमहाविद्यालयकी स्थापना करनेमें भी आपका हाथ था। 'जैन-हितषी' पत्रके जन्मदाता भी आप ही थे। 'धर्मपरीक्षा' का अनुवाद, 'रत्नकरण्डश्रावकाचार', 'द्रव्यसंग्रह' और 'तत्त्वार्थसूत्र' की छात्रोपयोगी टीकाएँ, 'जैन-वाल-बोधक' (४ भाग) 'स्त्री शिक्षा' (२ भाग) आदि जैनधर्मको पुस्तकोके सिवा हिन्दीकी सर्वोपयोगी पुस्तकें भी आपने लिखी है। ___यह तो सन १९१६-१७ तककी वात है। उसके बाद तो उनके द्वारा बहुत-सी पुस्तके लिखी गईं, और अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य हुए। सच बात तो यह है कि जन-समाज, समाज-सेवक और साहित्य-सेवियोका आदर करना जानती ही नही, अन्यथा जैन-समाजमे स्वर्गीय पं० पन्नालाल वाकलीवालका स्थान वही होता, जो बंगालमें स्व० ईश्वरचन्द्र विद्यासागरका है। भावी जैनसमाजको धर्मज्ञानकी सच्ची शिक्षासे शिक्षित