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पं० पन्नालाल वाकलीवाल
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एक में ही नही, और भी अनेक ऐसे लेखक है, जिनके उत्साहका मूल स्रोत 'गुरु' जी थे । उन्होने अनेकोंको सामाजिक सेवाके लिए तैयार किया और जीवनकी अन्तिम घड़ी तक करते रहे ।
गुरुजीके प्रारम्भिक जीवनके सम्वन्धमें भला मुझे क्या जानकारी हो सकती थी ? हाँ, जब वे पुराने क़िस्से कहने में दिलचस्पी लेते थे, तब कुछ-कुछ मालूम होता रहता था। एक जमाना था, जब जैनग्रथ छापने वालोंको लोग घृणाकी दृष्टिसे देखा करते थे । गुरुजीने उस समय जैन ग्रंथोका प्रकाशन करना प्रारम्भ कर दिया था । उनकी भावना थी कि जैन समाजका बच्चा-बच्चा अपने धर्म - सिद्धान्तसे परिचित हो जाय । इसके लिए उन्होंने वीसियो पाठ्य पुस्तकें लिखी; व्रतका वे लगन और उत्साहके साथ पालन करते रहे। मुझे उन्हीसे मालूम हुआ था कि कई पाठ्य पुस्तके उन्होने दूसरोके नामसे प्रकाशित करके उनका इस दिशा में उत्साह बढाया । 'जैन-ग्रन्थ - रत्नाकर कार्यालय उन्ही की स्थापना है । जिसने अपने प्रारम्भिक जीवनमें अच्छे से अच्छा जैन साहित्यका प्रकाशन किया ।
और अन्त तक इस
श्रीमान् प० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रतिभा देखकर उन्होने उन्हें जैनग्रंथ - कार्यालयका साझीदार बना लिया था, और उनके भरोसे उस कार्यको छोड़कर वे उच्चतर प्रकाशन संस्था और विद्यालयोंकी स्थापना आदि महत्त्वपूर्ण कार्यों में जुट पडे थे ।
श्री प्रेमीजीने अपनी एक पुस्तक समर्पण करते हुए गुरुजीके लिए जो कुछ लिखा है, उससे हम उनकी महानताका अनुमान कर सकते है; वे लिखते हैं- " जिनके अनुग्रह और उत्साहदानसे मेरी लेखनकलाकी * ओर प्रवृत्ति हुई और जिनका आश्रय मेरे लिए कल्पवृक्ष हुआ, उन गुरुवर पं० पन्नालालजी वाकलीवालके करकमलोमे सादर समर्पित ।"
सन् १९१८ तक जैनसमाजको उनकी कितनी सेवाएँ प्राप्त हुईं, इसका सिलसिलेवार वर्णन तो में नही कर सकता, पर इतना जरूर कह