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पं० उमरावसिंह न्यायतीर्थं
१८१ लौटते ही ब्रह्मचारीजी अपने काममें जुट गये । अखिल भारतीय अहिंसा प्रचारिणी परिषद्की स्थापना की गई और काशी नागरीप्रचारिणी समिति के भवनमे डा० भगवानदासजीके सभापतित्वमे उसका प्रथम अधिवेशन खूब धूमधाम से मनाया गया । जनतामे परिषद्के मन्तव्योका प्रचार करनेके लिए 'अहिंसा' नामकी साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित की गई । उपदेशक भी घुमाये गये, अर्जन जनताने भी परिषद् कार्यमे अच्छा हाय वटाया । अनेक रजवाडोने भी सहानुभूति प्रदर्शित की। बहुतसे अजैन रईम एक मुश्त सौ-सौ रुपये देकर परिपद्के आजीवन सदस्य वने ।
प्रारम्भमें अहिसाका प्रकाशन एक-दूसरे प्रेससे हुआ था । पीछे एक स्वतंत्र प्रेस खरीद लिया गया, जो अहिंसा प्रेसके नामसे स्यात हुआ । प्राय. अधिकाश मनुष्य आत्मप्रशसाको जितनी चाहसे सुनते हैं, खरी आलोचनाको उतनी ही घृणासे देखते हैं, किन्तु व्र० ज्ञानानन्दजीमें यह बात -न थी, वे अपनी आलोचनाको भी बहुत सहानुभूतिके साथ सुनते थे । एक वार कुछ ऐसी ही घटना घटी। ब्रह्मचारीजीने अहिंसा परिषद् के लिए कुछ लिफाफे और लेटर पेपर छपाये थे, जो वढिया थे । हमारी विद्यार्थीमण्डलीने ब्रह्मचारीजीके इस कार्यको समाजके रुपयेका दुरुपयोग वतलाया था । यह बात ब्रह्मचारीजीके कानो तक पहुँची । अवसर देखकर एक दिन रात्रिके समय हमारी मण्डलीके मुखिया लोगोके सामने उन्होने स्वयं आलोचनाको चर्चा उठाई। उस समयका उनका प्रसन्न मुख आज भुलाने पर भी नही भूलता। वोले -- "मुझे प्रसन्नता है कि तुम लोग मेरे कार्योकी भी आलोचना करते हो। मैने बढ़िया कागजोकी छपाई - में व्यय अपना शौक पूरा करनेके लिए नही किया, किन्तु जमानेकी रफ्तार - को देखते हुए राजा-रईसोके लिए किया है । हम लोग उनका उत्तर सुनकर कुछ सकुचा से गये, किन्तु फिर कभी उस विषयपर आलोचना नही हुई । जिन दिनो 'अहिंसा' का प्रकाशन आरम्भ हुआ, उन दिनो भारतके राजनीतिक आकाशमें गाँधीकी आंधीका जोर बढता जाता था । असहयोग आन्दोलनने भारतीयो में पारस्परिक सहयोगका भाव उत्पन्न करके विदेशी
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