Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 81
________________ १८४ जैन-जागरणके अग्नदूत के साथ हम लोगोसे मिले । किसे खबर थी कि यह 'अन्तिम दर्शन' है ? अफसोस ।।। उसी वर्ष ग्रीष्मावकाशके समय अपने घरपर एक मित्र के पत्रसे मुझे ज्ञात हुआ कि ब्र० ज्ञानानन्दजीका देहावसान हो गया। पढकर मै स्तम्भित रह गया। रगोमें वहनेवाला खून जमने-सा लगा, मस्तक गर्म हो गया । अन्तमें अपनेको समझाया और उनकी सशिक्षा, सद्व्यवहार और कर्तव्यशीलताका स्मरण करके, स्वर्गगत हितैषीको श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। मनुष्य जब तक जीवित रहता है, तब तक उसके अत्यन्त निकट रहनेवाले व्यक्ति भी उसका महत्त्व समझनेकी कोशिश नहीं करते। मेरी भी यही दशा हुई, मैने भी ब्रह्मचारीजीकी सशिक्षाओको सर्वदा उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा। आज जब वे नहीं है और पद-पदपर उनके ही सदुपदेशोका अनुसरण करना पड़ता है, तब अपनी अज्ञानतापर अत्यन्त पञ्चात्ताप होता है। -जैनदर्शन, १९४३

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