Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 68
________________ मा चन्दापाई १०६ मैने एक निटपर अपना नाम लिसकर और उनका भटरव्यूके लिए प्राप्त पत्र उन रनोऽयेको दे दिया। थोड़ी देम उस व्यक्तिने गार कहा-"आपको ऊपर बहजी बना रही है।" मैने उस आदमीने कहा-"भः ! मनमा भादमी है, यहाँग नियमोसे बिल्कुल अपरिचित हैं, पर नक मेरे माध नलनेका राष्ट करे। नग कहता हूं उस समय मेरे मनमें उसने नाही अभिप बबटाटी जैनी विषय तैयार न होनेपर कभी-कभी परीक्षाभवन पवाट हो जाती थी। कलेजा धक-धक कर रहा था, नाना प्रधान मना-विकल्प उत्पन्न हो रहे थे। मैं अपने भाग्य निपटान करने जा का था। ऊपर पहुंचकर कमरेले गमदेने मैंने भगवा उन्नं हए, गावात हुए, भय खाते हए। मन रह रहा था कि सही मझने सघ अमिष्टना न हो जाय और वना-बनाया मागमेलन विगः जाय । में प्रतीक्षा कर रहा था कि एक मधुर आवाज आई, आप भीतर चलं जाये। फिर क्या था अमल धवल बट्टारकी नाड़ी पहने दिव्य तेजन्धिनी, नादर्गामे औनप्रोत, मधुरभापिणी, नपम्बिनी, नेगीला मांके दर्शन हुए। उस समय हृदयमें नाना प्रकारको नरगें उठ रही थी। मनं श्रद्धा और भक्तिने प्रणाम करते हुए मनमे वाहा--"यही पडिना दावाईजी है, नब तो डरनेकी कोई बात नहीं । मै जिनसे डर रहा था, उनमे अपूर्व स्नेह और ममता है, वाणीमे तो मिश्री घोल दी गई है।" न मालूम क्यो मेरे हृदयने बरखन ही उनके गुणोकी श्रेष्ठना स्वीकार कर ली और उनकी चरण-रज सिरपर धारण करनेको लालायित हो उठा। स्नेहामृत उँटेलकर कुर्मी पर बैठालते हुए उन्होंने पूछा--"रास्लेमें कष्ट तो नहीं हुआ ? अपना सामान आपने कहाँ रक्खा है ? आप रहें। वाले कहाँके है ?" मैने सक्षेपमे उपर्युक्त प्रश्नोका उत्तर दिया । पश्चात् उन्होने पुन कहा--"आपने कहाँ तक अध्ययन किया है ? धर्मगास्त्रम कौन-कौन ग्रथ पढे है ? सस्कृत-साहित्य और व्याकरणका अध्ययन कहाँ तक किया है ? न्यायतीर्थकी परीक्षा किस वर्ष दी?" मैने पूज्य पंडित

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