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जैन-जागरण के अग्रदूत
कैलाशचन्द्रजी द्वारा प्रदत्त परिचयपत्रको देते हुए उपर्युक्त प्रश्नोका सक्षेप में जवाब दिया । अब मुझमें साहस आने लगा था और भय उत्तरोत्तर घटता जा रहा था ।
अनन्तर माँश्रीने हँसते हुए प्रथम गुच्छक, जिसका वह स्वाध्याय कर रही थी उठा लिया और मुझसे देवागम स्तोत्रकी बाहरवी कारिका - "भावैकान्तपक्षेऽपि भावापहववादिनाम" का अर्थ पूछा। में अष्टसहस्रीको परीक्षा देकर आया था। मुझे अपने तद्विषयक पाडित्यका पूरा भरोसा था; अत प्रसन्न होकर कारिकाका अर्थ 'शती' और 'सहस्री' टीकाओके आधारपर उद्धरणसहित बताया। माँश्रीने हँसते हुए वीचमे रोककर कहा कि कारिकाके उत्तरार्द्ध 'बोववाक्य' का अर्थ फिरसे कहिये । मैंने रटी हुई पक्तिके आधार पर कहा - "बोधस्य स्वार्थसाधनदूपणरूपस्य वाक्यस्य च परार्थसाधनदूपणात्मनो संभवात्तन्न प्रमाणम्” अर्थात् स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको प्रमाणता सिद्ध न हो सकेगी ।
माँश्रीने बीचमें रोकते हुए कहा--"वोघ" शब्दका अर्थ अनुमान और "वाक्य " शब्दका अर्थ आगम लिया जाय तो क्या हानि है ? वसुनदी वृत्तिके आधार पर उन्होंने अपने अर्थकी पुष्टिके लिए प्रमाण भी उपस्थित किये । मैं उनकी तर्कणाशक्तिको देख आश्चर्यमें डूब गया । पश्चात् 'आत्मानुशासन' और 'नाटकसमयसारकलश' के कई श्लोकोका अर्थ पूछा । में अर्थ कहता जाता और माँश्री बीच-बीचमे शकाएँ करती जाती थी । बृहत्स्वयभूस्तोत्रमे मुनि सुव्रतनाथको स्तुतिमें आये - "शशिरुचि - शुचिशुक्तलोहितं" श्लोकका अर्थं गलत कर रहा था तो माँश्रीने मीठे शब्दो में मेरी गलती वतलाई और उस श्लोकके दो-तीन अर्थ भी प्रकारान्तरसे किये ।
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गोम्मटसार जीवकाण्डको लेकर उन्होने "श्रवरुवरि इगिपदेसे गुदे श्रसंखेज्जभाग वड्ढीए" आदि अवगाहनाके वृद्धिक्रमवाली गाथाओको व्याख्या करनेका मुझे आदेश दिया । गणित विषयमे विशेष रुचि होनेके कारण मैने गोम्मटसारमे आई हुई सदृष्टियोको अपने कल्पित उदाहरणो द्वारा हृदयगम कर लिया था, पर फिर भी न मालूम क्यो में इस समय अधिक