Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 29
________________ निर्भीक त्यागी क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी एसा निर्भीक त्यागी इस कालमें दुर्लभ है । जबसे आप ब्रह्मचारी हुए, पैसेका स्पर्श नही किया । आजन्म नमक और मीठेका त्याग था । दो लँगोट और दो चादर मात्र परिग्रह रखते थे 1 एकबार भोजन और पानी लेते थे । प्रतिदिन स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा और समयसारका पाठ करते थे । स्वयम्भू स्तोत्रका भी निरन्तर पाठ करते थे । आपका गला बहुत ही मधुर था, जब आप भजन कहते थे, तव जिस विषयका भजन होता, उस विषयको मूर्ति सामने आ जाती थी । आपका शास्त्र- प्रवचन बहुत ही प्रभावक होता था । आप ही के उत्साह और सहायता से स्याद्वादविद्यालयकी स्थापना हुई थी । आपकी प्रकृति अत्यन्त दयालु थी । आप मुझे निरन्तर उपदेश दिया करते थे कि इतना आडम्वर मत कर । एक वारकी बात है, मैने कहा- "वावाजी ! आपके सदृश हम भी दो चद्दर और दो लंगोट रख सकते है, इसमे कौन-सी प्रशसाकी बात है ?" बाबाजी बोले- "रख क्यो नही लेते ?” मै बोला - " रखना तो कठिन नही है, परन्तु जब बाज़ारसे निकलूंगा, तब लोग क्या कहेंगे? इसीसे लज्जा आती है ।" बावाजीने हँसकर कहा - "वस, इसी वलपर त्यागी बनना चाहते हो ? अरे, त्याग करना सामान्य पुरुषोका कार्य नही है । हाँ यह मैं कहता हूँ कि एक दिन तू भी त्यागी बन जायगा । तू सीधा है, अच्छा है, अव इसी रूप रहना ।" लिखनेका तात्पर्य यही है कि जो कुछ थोडा बहुत मेरे पास है वह उन्हींके समागमका फल है । --मेरी जीवन-गाथा पृ० ५८१

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