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जैन-जागरणके अग्रदूत सीतलप्रसादजीके विधवा-विवाह आदि ऐसे प्रस्तावोका शास्त्रीय आधार से खण्डन करते थे। बुन्देलखण्डके अच्छे सार्वजनिक आयोजन उनके विना न होते थे। तथापि उनका मन वेचैन था। इन सबमें आत्मशान्ति न थी। व्यक्तिगत कारणसे न सही समष्टिगत हितकी भावनासे ही विरोध और विद्वेषको अवसर मिलता था। ऐसे ही समय वर्णीजी वावा गोकुलचन्द्रजीके साथ कुण्डलपुर (सागर म० प्रा०) गये । यहाँ पर भी बावाजीने उदासीनाश्रम खोल रखा था। वर्णीजीने अपने मनोभाव वावाजीसे कहे और सप्तम 'प्रतिमा' धारण करके पदसे भी अपने आपको वर्णी बना दिया। ज्ञान और त्यागका यह समागम जैन-समाजमे अद्भुत था । अव वर्णीजी व्रतियोके भी गुरु थे, और सामाजिक विरोध तथा विद्वेषसे बचनेकी अपेक्षा उसमे पडनेके अवसर अधिक उपस्थित हो सकते थे, किन्तु वर्णीजीकी उदासीनतासे अनुगत विनम्रता ऐसे अवसर सहज ही टाल देती थी। तथा वर्णी होकर भी उनके सार्वजनिक कार्य दिन दुने रात चौगुने वढते जाते थे।
लोग कहते है “पुण्य तो वर्णीजी न जाने कितना करके चले है । ऐसा सातिशय पुण्यात्मा तो देखा ही नही । क्योकि जब जो चाहा मिला, या जो कह दिया वही हुआ" ऐसी अनेक घटनाएँ उनके विषयमे सुनी है । नैनागिर ऐसे पर्वतीय प्रदेशमे उनके कहनेके वाद घटे भरमे ही अकस्मात् अगूर पहुँच जाना, वडगनीके मन्दिरको प्रतिष्ठाके समय सूखे कुंओका पानीसे भर जाना, आदि ऐसी घटनाएँ है, जिन्हे सुनकर मनुष्य आश्चर्यमे पड जाता है। काहेको होत अधीरा रे
जब वर्गीजी उनत प्रकारसे समाजका सम्मान और पूजा तथा मातुश्री वाईजीके मातृस्नेहका अविरोधेन रस ले रहे थे, उसी समय वाईजी का एकाएक स्वास्थ्य बिगडा । विवेकी वर्णीजीकी आँखोके आगे आद्यमिलनसे तब तककी घटनाएँ घूम गई और कल्पना आई प्रकृत्या विवेकी, बुद्धिमान्, दयालु तथा व्यवस्था प्रेमी वाईजी शायद अब और