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क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी
२५ पर पुत्र-स्नेह लोकोत्तर था तो वर्णीजीकी मानश्रद्धा भी अनुपग धी। फलत. बाईजीके कार्यको कम करनेके लिए तथा प्रिय भोज गामग्री लाने के लिए वे स्वय ही बाजार जाते थे । सागरमे मा फलादि कंजनि वगनी है। और मुंहको वे जितनी अशिष्ट होती है जानगणकी उननीm होती है । एक किसी ऐसी ही कुंजडिनकी दुकानपर दो पत्र यो गर्ग रखे थे। एक रईस उनका मोल कर रहे थे और कंजटिनका मुंह मांगा मूल्य एक रुपया नहीं देना चाहते थे, आखिरकार ज्यों की ये दुरागन आगे बढे वर्णीजीने जाकर वे गरीफे परीद लिये । लक्ष्मी-बारनने में अपनी हेठी समझी और अधिक मूल्य देकर गरीके वापस पाना प्रयत्न करने लगे। कुंजडिनने इस पर उन्हें आटे हाथों लिया और वर्णीजीको शरीफे दे दिये । उसको इस निर्लोभिता और वचनको ददनारा वर्गीजी पर अच्छा प्रभाव पडा और वहधा उसीके यहाने गाफ माजी लेने लगे। पर चोर यदि दुनियाको चोर न समझे तो कितने दिन चोरी रंगा? फलत स्वय दुर्बल और भोग-लिप्त मानवोमे उन बातकी कानापती प्रारम्भ हुई, वर्णीजीके कानमें उसकी भनक आई। मोत्रा, समार! तू तो अनादि कालसे ऐसा ही है, मार्ग तो मै ही भूल रहा है, जो गरीन्को नजाने और खिलानमे सुख मानता हूँ। यदि ऐसा नहीं तो उत्तम वन्न, आठ पिया सेरका सुगधित चमेलीका तेल, बडे-बडे वाल, आदि विडम्बना पयो ? और जब स्वप्नमे भी मनमे पापमय प्रवृत्ति नहीं तो यह विडम्बना गतगुणित हो जाती है। प्रतिक्रिया इतनी बढी कि श्री छेदीलालके बगीचे में जाकर आजीवन ब्रह्मचर्यका प्रण कर लिया। मोक्षमार्गका पथिक अपने मार्गको ओर बढा तो लौकिक बुद्धिमानोने अपनी नेक सलाह दी। वे सब इस व्रतग्रहणके विरुद्ध थी तथापि वर्णीजी अबोल रहे।
इस व्रत-ग्रहणके पश्चात् उनकी वृत्ति कुछ ऐमी अन्तर्मुख हुई कि पतितोका उद्धार, अन्तर्जातीय विवाह आदिके विषयमे शास्त्रसम्मत मार्गपर चलनेका उपदेगादि देना भी उनके मनको संतुष्ट नहीं करता था। यद्यपि इन दिनो भी प्रति वर्प वे परवार-सभाके अधिवेशनोमे जाते थे, तथा बाबा