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जैन - जागरणके अग्रदूत
असली (ग्रामीण) भारतमे ज्योति जगानेका जो श्रेय उन्हें है, वह विश्वविद्यालयके संस्थापकको नही मिल सकता । क्योकि वर्णोजीका पुरुषार्थ नदी, नाले और कूप-जलके समान गाँव-गाँवको जीवन दे रहा है ।
वर्णीजीको दयाकी मूर्ति कहना अयुक्त न होगा । उनके हृदयका करुणास्त्रोत दीन-दुखीको देखकर अवाधगति से वहता है । दीन या आक्रान्त को देखकर उनका हृदय तड़प उठता है । यह पात्र है या अपात्र यह वे नही सोच सकते, उसकी सहायता उनका चरम लक्ष्य हो जाता है । लोग वेश बनाकर वर्णीजीको आज भी ठगते हैं, पर बावाजी "कर्तुं वृथा प्रणयमस्य न पारयन्ति ।" के अनुसार "अरे भइया हमें वो का ठौ जो अपने आपको ठग रहो ।” कथनको सुनते ही आज भी दयामय वर्णके विविध रूप सामने नाचने लगते हैं । यदि एक समय लुहारसे सँडसी माँगकर लकडहारिनके पैरसे खजूरका काँटा निकालते दिखते है तो दूसरे ही क्षण वहेरिया ग्रामके कुआँपर दरिद्र दलित वर्ग वालकको अपने लोटेसे जल तथा मेवा खिलाती मूर्ति सामने आ जाती है, तीसरे क्षण मार्गमे ठिठुरती स्त्रीकी ठंड दूर करने के लिए लँगोटीके सिवा समस्त कपड़े शरीर परसे उतार फेंकती श्यामल मूर्ति झलकती है, तो उसके तुरन्त बाद ही लकडहारे के न्याय प्राप्त दो आना पैसोको लिए, तथा प्रायश्चित्त रूपसे सेर भर पक्वान्न लेकर गर्मीकी दुपहरीमे दौडती हुई पसीनेसे लथपथ मूर्ति आँखोके आगे नाचने लगती है । कर्रापुरके कुंएपर वर्णोजी पानी पीकर चलना ही चाहते है कि दृष्टि पास खड़े प्यासे मितरपर ठिठक जाती है। दया उमडी और लोटा कुएँ से भरकर पानी पिलाने लगे, लोकापवादभय मनमें जागा और लोटाडोर उसीके सिपुर्द करके चलते वने । स्थितिपालन और सुधारका अनूठा समन्वय इससे बढकर कहाँ मिलेगा ? जो संसार विषै सुख होतो
इस प्रकार बिना विज्ञापन किये जव वर्णोजीका चरित्र निखर रहा था, तभी कुछ ऐसी घटनाएँ हुई, जिन्होने उन्हें वाह्यत्याग तथा व्रतादि ग्रहण के लिए प्रेरित किया । यदि स्व० सिंघैन चिरोजाबाईजीका वर्णीजी
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