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जैन-जागरणके अग्रदूत जैन-समाजमे और विशेष करके बुन्देलखण्डकी जनसमाजमे शिक्षा का प्रसार करनेमे वर्णीजीने अथक प्रयत्ल किया है, और ७७ वर्षकी अवस्था हो जाने पर भी वे अपने प्रयत्नसे विरत नहीं हुए है।
उनकी वालको-जैसी सरलता तो सभीके लिए आकर्षक है । उन्हे अभिमान छ तक नही गया है । सदा प्रसन्न मुख, मीठी-मीठी बातें, परदुःखकातरता और सदा सवकी शुभ कामना, ये वर्णीजीकी स्वाभाविक विशेषताएँ है। जबसे मैने उन्हें देखा और जाना, तबसे आज तक मुझे उनमे कोई भी परिवर्तन दिखलाई नही दिया । उत्तरोत्तर उनकी ख्याति, प्रतिष्ठा, भक्तोकी सख्या वरावर वढती गई, किन्तु इन सबका प्रभाव उनकी उक्त विशेषताओ पर रचमात्र भी नही पडा।
वे सदा जनताकी भाषामे वोलते है, जनताके हृदयसे सोचते है और जनताके लिए ही सब कुछ करते है। इसीसे जनताके मनोभावोको जितना वे समझते हैं, जैनसमाजका कोई अन्य नेता नही समझता । वे उसकी कमजोरीको जानते हुए भी उससे घृणा नहीं करते, किन्तु हार्दिक सहानुभूति रखते है। इसीसे वे जनसाधारणमे इतने अधिक प्रिय है। उनसे मिलनेके बाद प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वर्णीजीकी मुझ. पर असीम कृपा है। यही उनकी महत्ताका सबसे बडा चिह्न है । सचमुच में वे छोटे-से भी छोटे और महान् से भी महान् है ।
१० सितम्बर, १९५१
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