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आत्मार्थी श्री कानजी महाराज
पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
स
१९४० की घटना है | श्रमणबेलगोला के महामस्तकाभिषेक लौटते हुए अम्बाला सघ स्पेशल श्री गिरनार क्षेत्रपर पहुंची। क्षेत्र मुनीमसे ज्ञात हुआ कि कानजी महाराज यही है और कल बहने चले जायेंगे । हम लोग तुरन्त ही उनसे मिलने गये और हमने लाठी तख्तेपर बैठी हुई एक भव्य आकृतिको देना, जिनने प्रसन्नमुद्राने हमारा स्वागत किया । यह प्रथम दर्शन था। उसके पञ्चान् १६४६ में दूगरा अवसर उपस्थित हुआ ।
महाराजकी भक्त मडलीने सोनगढले दि० जैन विद्वत्परिषद्को आमन्त्रित किया और मुझे उसका प्रमुख बननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । तीन दिन तक चर्चा-वार्ताका आनन्द रहा और जो कुछ सुना करते थे उसे प्रत्यक्ष देखनेका अवसर मिला ।
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कानजी महाराजका जन्म वि० स० १३४६ के वमान्य मानमे रविवारके दिन काठियावाडके उमराला गाँवमं, स्थानकवासी जैन-सम्प्रदायकी अनुयायी व्शा श्रीमाली जातिमे हुआ । आप वचपन से ही विरागी थे । छोटी उम्र में ही माता-पिताने स्वर्गस्थ हो जानेसे कानजी अपने वड़े भाईके साथ आजीविका उपार्जन करनेके लिए पालेजमे चालू दूकानमें शामिल हुए, किन्तु व्यापार करते हुए भी आपका दिल व्यापारी नही था । आपके मनका स्वभाविक झुकाव सत्यकी सोजकी ओर था । उपाश्रयमें किसी मुनिके आनेका समाचार मिलते ही आप उनकी सेवा और धर्म-चर्चाके लिए उनके पास दौड़ जाते थे । इस तरह आपका बहुत-सा समय उपाश्रयमे ही बीतता था । आपके सम्वन्धी आपको 'भगत' कहते थे ।