Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 48
________________ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी 'अद्य धारा सदाधारा सदालत्रा सरस्वती। पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवं गते ।। वर्णीजी भी विद्यार्थियों और विद्वानो गल्पा । टिका राजा भोजकी तरह किसी राज्य स्वामी होते नो विनाको आजीणि के लिए किसीका मुंह ताकना न पटना । जब वे सुनने के किनी मित्रान् को जीविकाका कष्ट है या किसीने विद्वानकी जवहेलना की।मला अन्त करण आकुल हो उठता है, और वे भन्मक उनकी माता के लिए प्रयत्न करते हुए रचमात्र भी नही नकचाते। उनमा मानिकान्त है कि यदि हमारे चार अक्षरोंने किमीका हित होता हो नो उगने अन्त्री क्या बात है। उनके चार अक्षरोमे न जाने कितने पोदित, नी भीन निष्कासित छात्रो तथा विद्वानोका हित हुआ है। ऐने भी लोग है, जो उनकी इस उदार वृत्तिकी आलोचना करते है और माला कभी-कभी वर्णीजी भी सकोचमे पट जाने है, किन्तु उनका वह गंगोन उनकी उदार मनोवृत्तिके सामने एक क्षणमे अधिक नही हग्ना। टोर ही है, क्या किसीके कहने से नदी अपना बना बन्द कर सकता है, या जलने भरा मेघ बरसे विना रह सकता है। जिस दिन वर्णीजी अस्त हो जायेंगे, विद्वानो निर दिना माटके हो जायेंगे और उनकी जन्मभूमि बुन्देलखण तो नदाके लिए अनायो जायेगा। विरले ही महापुस्प ऐसे होते है, जो अपनी जन्मभूमिको तना प्यार करते है। वर्णीजी समस्त भारतकी जैन-समाजके द्वारा मादरीग होकर भी और भारतके विविध प्रान्तोमे भ्रमण करते हुए भी अपनी जन्मभूमि और उसके निवासियोको नहीं भूल सके । बुन्देलखण्डका छोटे-से-छोटा अधिवासी भी उनके लिए प्रिय है। वे उसके बच्चोंकी गिक्षाकी सदा चिन्ता करते रहते है। * अर्थात् श्राज राजा भोजके जी उठनेसे धारा नगरी सदाके लिए साधार हो गई, सरस्वतीका अवलम्बन स्थायी हो गया और पण्डितवर्ग मण्डित (भूपित) हो गया।

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