Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 39
________________ जैन - जागरण के अग्रदूत मनुष्यके स्वभावका अध्ययन करनेमे तो वर्णीजीको एक क्षण भी नही लगता । यही कारण है कि वे विविध योग्यताओके पुरुषोसे सहज ही विविध कार्य करा सके । यह भी समझना भूल होगी कि यह योग्यता उन्हें अब प्राप्त हुई है । विद्यार्थी जीवनमें बाईजीके मोतियाबिन्दकी चिकित्सा कराने किसी बगाली डाक्टरके पास झांसी गये । डाक्टरने यो ही कहा"यहाँके लोग बडे चालाक होते है," फिर क्या था माता-पुत्र उसकी लोभी प्रकृतिको भाँप गये और चिकित्साका विचार ही छोड़ दिया । बादमें उस क्षेत्रके सब लोगोने भी बताया कि वह डाक्टर वडा लोभी था, किन्तु घर्ममाताकी व्यथाके कारण वर्णीजी दुखी थे, उन्हें स्वस्थ देखना चाहते थे । तथापि उनकी आज्ञा होने पर बनारस गये और परीक्षामे बैठे गो कि मन न लग सकने के कारण असफल रहे । लौटने पर बागमे एक अग्रेज डाक्टरसे भेट हुई। वर्णीजीको उसके विषयमें अच्छा ख्याल हुआ । उससे वाईजीको आँखका आपरेशन कराया और बाईजी ठीक हो गई । इतना ही नही वह इनसे इतना प्रभावित हुआ कि उसने रविवारको मासा - हारका त्याग कर दिया तथा कपडोकी स्वच्छता आदिको भोजन-शुद्धिका अग बनानेका इनसे भी आग्रह किया । ५० वर्णीजीका दूसरा विशेष गुण गुणग्राहकता है, जिसका विकास भी छात्रावस्थामें ही हुआ था । जव वे चकौती (दरभंगा) मे अध्ययन करते थे, तव द्रौपदी नामकी भ्रष्ट बालविधवामें प्रौढावस्था आने पर जो एकाएक परिवर्तन हुआ, उसने वर्णीजी पर भी अद्भुत प्रभाव डाला । वे जव कभी उसकी चर्चा करते है तो उसके दूषित जीवनकी ओर संकेत भी नही करते हैं और उसके श्रद्धानकी प्रशंसा करते है | बिहारी मुसहरकी निर्लोभिता तो वर्णीजीके लिए आदर्श है । अल्पवित्त, अपढ होकर भी उसने उनसे दस रुपये नही ही लिये क्योकि वह अपने औषधिज्ञानको सेवार्थ मानता था । घोर से घोर घृणोत्पादक अवसरोने वर्णीजीमें विरक्ति और दयाका ही सचार किया है, प्रतिशोध और क्रोध कभी भी उनके विवेक और सरलताको नही भेद सके है । नवद्वीपमे जब कहाfरनसे मछलीका

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