________________
निस्पृही
गोयलीयवटा-सा कद, तुतई-सा मुंह, गोल और चुन्धी आँखे, दांत ऊबट
र खाबड़, सर घुटा हुआ वैगन-जैसा गोल, मुंहपर मूंछ नदाग्द, पवि वेडौल, रग ताँवे-जैसा, शरीर कृग और भक्तोका यह जालम कि गरीबअमीर, पण्डित-बाबू सभी पांवोमें गिरे जा रहे है और ये है कि निहरसिहर उठ रहे है । अपनी ब्रज मातृभाषामे पाँव छूनेको मना भी करने जा रहे है और जो जबरन छूते जा रहे है, उन्हे धर्मलाभका आगीर्गद भी देते जा रहे है।
मेरे अहकास्ने इजाजत नहीं दी कि मैं इनके पाव पडूं। एक तो स्वभावत. मुझे साधु-सन्यासियोसे वैसे ही विरवित-सी रही है। दूसरे विना परखे-बूझे चाहे जिसके सामने गर्दन झुकानेकी मेरी आदत नही है। इनके त्याग-तपकी अनेक बाते सुनी थी, परन्तु न जाने क्यो विश्वास करनेको जी न चाहा और वात आई-गई हुई।
सम्भवत उक्त वात १९१८ ई० की होगी। ये चौरामी (मथुग) आये थे। मेरे गुरुदेव प० उमरावसिंहजी न्यायतीर्य उनके परम भक्त थे और प्रसंग छिडनेपर इनका बडी श्रद्धा-भक्तिसे उल्लेख किया करते थे, परन्तु मुझपर इनका कोई प्रभाव न पडा । हाँ, ढोगी और रंगे हुए नही है, यह उस छोटी-सी आयुमे भी जान लिया था।
१९२० के बाद जब मेरा दिल्ली रहना हुआ तो ये कई बार दिल्ली आये-गये । जान-पहचान वढी, पर श्रद्धा-भक्ति न बढ़ी।
१९२६ मे पं० जुगलकिशोर मुख्तारने करोलबाग्न दिल्लीमे वीरसेवामन्दिरको स्थापना की। मुझे भी 'अनेकान्त के प्रकाशन निमित्त वहाँ छह माह रहना पड़ा। उन्ही दिनो वावाजीने भी दिल्लीमे चातुर्मास किया