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जैन-जागरण के अग्रदूत
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है ! फिर भी उनके त्याग और तपस्याकी पवित्र स्मृति हमारे हृदयको पवित्र बनाये हुए है और वीरसेवामन्दिरमे आपका ३|| मासका निवास तो बहुत ही याद आता है ।
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बावाजीका जन्म स० १६२५ मे मथुरा जिलेके पण्डापुर नामक ग्राम हुआ था | आपके पिताका नाम बलदेवदास और माताका मानकौर था। तीन वर्षकी अवस्थामे पिताका और ग्यारह वर्षको अवस्थामे माताका स्वर्गवास हो गया था । आपके माता-पिता गरीव थे, इस कारण आपको शिक्षा प्राप्त करनेका कोई साधन उपलब्ध न हो सका। आपके मातापिता वैष्णव थे । यत' आप उसी धर्मके अनुसार प्रात काल स्नान कर यमुना किनारे राम-राम जपा करते थे और गोली वोती पहने हुए घर आते थे । इस तरह आप जब चौदह-पन्द्रह वर्ष के हो गय, तव आजीविका के निमित्त दिल्ली आये । दिल्लीमे किसीसे कोई परिचय न होनेके कारण सबसे पहले आप मकानकी चिनाईके कार्यमे ईटोको उठाकर राजोको देने का कार्य करने लगे। उससे जव ५-६ रुपये पैदा कर लिये, तब उसे छोडकर तौलिया रुमाल आदिका वेचना शुरू कर दिया। उस समय आपका जैनियोसे वडा द्वेष था । चावाजी जैनियोंके मुहल्लेमें ही रहते थे और प्रतिदिन जैनमन्दिर के सामनेसे आया-जाया करते थे। उस रास्ते जाते हुए आपको देखकर एक सज्जनने कहा कि आप थोडे समयके लिए मेरी दुकानपर आ जाया करो। मैं तुम्हे लिखना-पढना सिखा दूंगा । तवसे आप उनकी दुकानपर नित्यप्रति जाने लगे। इस ओर लगन होनेसे आपने शीघ्र ही लिखने-पढ़नेका अभ्यास कर लिया ।
एक दिन आप यमुनास्नानके लिए जा रहे थे, कि जैनमन्दिरके सामने निकले। वहाँ 'पद्मपुराण' का प्रवचन हो रहा था । रास्तेमे आपने उसे सुना, सुनकर आपको उससे वडा प्रेम हो गया और आपने उन्ही सज्जन की मार्फत पद्मपुराणका अध्ययन किया । इसका अध्ययन करते हो आपकी दृष्टि सहसा नया परिवर्तन हो गया हो गई | अब आप रोज जिनमन्दिर जाने लगे
और जैनधर्मपर दृढ श्रद्धा
तथा पूजन - स्वाध्याय
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