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जैन-जागरणके अग्रदूत स्वय पूजा करके उन्होने सवको बताया | साराश यह कि अज्ञान अन्धकार मेटनेके लिए व० जी सदा प्रयत्नशील रहते थे ।
लखनऊमें परिषद्का अधिवेशन था और उसमें मुख्य कार्य एक अजैन क्षत्रियको जैनधर्मकी दीक्षा देना था | उस क्षत्रियवीरका नाम श्री प्यारेलाल था। व० जीने ही उसको जैनधर्मका श्रद्धालु बनाया था और उन्होने ही उसे जैनधर्मकी दीक्षा दी थी। जैनदीक्षा कार्यका प्रचार उन्होने प्लेटफार्म और प्रेससे ही नहीं किया, बल्कि स्वयं अपने कर्मसे उसे मूर्तिमान बनाकर दिखाया ! किन्तु जो जैनी आज अपने जन्मत जैनी भाइयोसे मिल-जुलकर एक होनेमे सकोच करते है, उपजातिके मोहमें जैनत्वको भुलाते है, वह भला अजैन बन्धुके जैनधर्ममें आनेपर उसे कैसे गले लगाते ? यही कारण है कि ब्र० जी द्वारा रोपा गया जैनदीक्षाका पवित्र धर्मवृक्ष पल्लवित न होकर सूख गया है। विवेकशील जैनजगत् ही इस वृक्षको फिरसे रोप सकता है !
मेरी इच्छा थी कि ७० जी कभी अलीगंज आवें। मैने उनसे कह भी रक्खा था, परन्तु उस दिन वह जैसे आये, वह उनकी सरलता और समुदारहृदयताका द्योतक है । मै घरमे था-एक लडकेने आकर कहा, "आपके साधुजी धर्मशालाके चबूतरेपर बैठे है ।" मेरा माथा ठनका, मनने कहा, क्या ७० जी आ गये? जाकर देखा, सचमुच ब्र० जी आ गये है। वह बोले, "लो, हम तुम्हारे घर आ गये।" इस वत्सलताका भी कोई ठिकाना था। मै सकुचाया-सा रह गया और उन्हे आदरपूर्वक घर लिवा लाया। उस समय स्थितिपालक जैनी ब्र० जीकी स्पष्टवादिता
और 'सनातन जैन समाज की स्थापना करने के कारण उनसे विमुख-से हो रहे थे। अलीगजमे भी कुछ जैनी इस रगके थे। अ० जीका भाषण हुआ, सव सुनने आये, वह भी आये जो उनसे असहमते थे। उनके सयुक्तिक भाषणको सुनकर सब ही प्रभावित हुए।
व० जीको पुरानी वस्तुओको देखने और उनका इतिहास सग्रह करनेकी भी अभिरुचि थी। कम्पिलाजी तीर्थमे जब वह आये, तव हम