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संस्मरण
- गोयलीय
सन् १३ या १४ की बात है, मैं उन दिनों अपनी ननिहाल (कोमीकलां,
मथुरा) की जैन पाठशालामे पढा करता था । वालवोध तीनरा भाग घोटकर पी लिया गया था और महाजनी हिसावमे कमाल हासिल करनेका असफल प्रयत्न जारी था। तभी एक रोज एक गेरुआ वस्त्रधारी -- हाथमे कमण्डलु और वगलमे चटाई दवाये कसवेके १०-५ प्रमुख सज्जनोंके नाथ पाठशाला में पधारे । चाँद घुटी हुई चोटीके स्थानपर यूं ही १०-५ रत्तीभर वाल, नाकपर चश्मा, सुडौल और गौरवं शरीर, तेजसे दीप्त मुखाकृति देख हम सब सहम गये । यद्यपि हाथमे उनके प्रमाण-पत्र नही था, फिर भी न जाने कैसे हमने यह भाँप लिया कि ये कोरे बाबाजी नहीं, बल्कि बाबू वावाजी है | साधु तो रोजाना ही देखनेगे आते थे, बल्कि आगे बैठने के लालचमे हम खुद कई वार रामलीलाओमे साधु बन चुके थे, परन्तु कितावी पाठके सिवा सचमुचके जीते जागते साधु भी जैनियोंमें होते हैं, इस विलुप्त पुरातत्त्वका साक्षात्कार अनायाम उसी रोज हुआ । में आज यह स्मरण करके कल्पनातीत आनन्द अनुभव कर रहा हूँ कि बचपनमे मैंने जिस महात्माके प्रथमवार दर्शन किये, वे इस युगके समन्तभद्र ० सीतलप्रसादजी थे ।
विद्यार्थियोकी परीक्षा ली । देव-दर्शन और रात्रि भोजन त्यागका महत्त्व भी समझाया । दो-एक रोज रहे और चले गये, मगर अपनी एक अमिट छाप मार गये । जीवनमे अनेक त्यागी और साधु फिर देखनेको मिले, मगर वह वात देखनेमे न आई ।
"तुलसी कारी कामरी, चढौ न दूजौ रंग ।"