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(XIII) (घ.) काय की अपेक्षा जीवों का वर्गीकरण ७. जीव सिद्ध है। ८. जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावी है। ३. जैन दर्शन में योग
४. जीवों की संख्या ५. निष्कर्ष तृतीय अध्याय-पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें- ५१.८४ १. जैन कर्म सिद्धान्त का अनिवार्य अंग २. पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण ३. पुद्गल का मूर्तत्व गुण ४. कर्म भी मूर्तिक और पौद्गलिक हैं ५.पुद्गल अचेतन द्रव्य है। ६. पुद्गल द्रव्य की पर्याय - शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आताप, उद्योत ७.पुद्गल द्रव्य के कार्य - शरीर, वचन, मन, प्राण, अपान, सुख, दु:ख, जीवन, मरण ८. संस्कार और चिदाभासी जगत् ९.पुद्गल द्रव्य के भेद प्रभेद - बादर-बादर, बादर, बादर-सूक्ष्म, सूक्ष्म-बादर, सूक्ष्म, सूक्ष्म-सूक्ष्म १०. परमाणुशाश्वत है, शब्द रहित है, एक प्रदेशी है , अविभागी है, मूर्तिक है। ११.अन्य दर्शनों से तुलना १२. परमाणु से स्कन्ध कैसे बनते हैं १३ पंचविध वर्गणायें-(क). आहारक वर्गणा (ख.) तैजस वर्गणा (ग). भाषा वर्गणा (घ.) मनो वर्गणा (ड.) कार्मण वर्गणा १४. कार्मण शरीर की शोध १५. पंचविध शरीरों का तुलनात्मक विवेचन १६. निष्कर्ष चतुर्थ अध्याय-कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
८५-१०८ १, कर्म का स्वरूप २. तुलनात्मक परिचय-(क.) न्यायवैशेषिक से तुलना (ख.) मीमांसा दर्शन से
तुलना (ग.) योग दर्शन से तुलना (घ.) सांख्य दर्शन से तुलना (ड.) वेदान्त दर्शन से तुलना (च.) बौद्ध दर्शन से तुलना (छ). पाश्चात्य दर्शनों से तुलना कर्म जगत्का सृष्टा है । ४. द्रव्य कर्म और भावकर्म कर्म की विविध अवस्थायें- १. बन्ध करण-(क.) अमूर्त जीवसे मूर्त कर्मों का संबंध कैसे ? (ख.) कर्म बन्ध अनादिकाल से है (ग.) कर्मबन्ध अनादि होते हुए भी सान्त है (घ.) कर्म सिद्धान्तमें द्रव्य बन्ध की प्रधानता २. उदय करण ३. सत्व करण ४. अपकर्षण करण ५. उत्कर्षण करण ६. संक्रमण करण
७. उदीरणा करण ८. उपशम करण ९. निधत्त करण १०. निकाचित करण ६. कर्म की अवस्थाओं का तुलनात्मक विवेचन ७. दस करणों का गुणस्थान की दृष्टि से निर्देशन ८. निष्कर्ष पंचम अध्याय- कर्मबन्ध के कारण तया भेद प्रभेद
१०९-१६० १. विभिन्न दर्शनों में कर्मबन्ध के कारण
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