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विषय प्रवेश
३३ कर केवल कल्पनालोकमें दौड़ती है, वे वस्तुस्पर्शी न होनेके कारण दर्शनाभास ही है, सत्य नहीं । जो वस्तुस्पर्श करनेवाली दृष्टियाँ अपनेसे भिन्न वस्त्वंशको ग्रहण करनेवाले दृष्टिकोणोंका समादर करती है, वे सत्योन्मुख होनेसे सत्य है। जिनमें यह आग्रह है कि मेरे द्वारा देखा गया वस्तुका अंश हो सच है, अन्यके द्वारा जाना गया मिथ्या है, वे वस्तुस्वरूपसे पराङ्मुख होनेके कारण मिथ्या और विसंवादिनी होती है। इस तरह वस्तुके अनन्तधर्मा स्वरूपको केन्द्रमें रखकर उसके ग्राहक विभिन्न 'दृष्टिकोण' के अर्थमें यदि दर्शन शब्दका व्यवहार माना जाय तो वह कथमपि सार्थक हो सकता है। जब जगतका प्रत्येक पदार्थ सत्-असत, नित्य-अनित्य, एकअनेक आदि परस्पर विरोधी विभिन्न धर्मोका अविरोधी क्रीड़ास्थल है तब इनके ग्राहक विभिन्न दृष्टिकोणोंको आपसमे टकरानेका अवसर ही नही है । उन्हे परस्पर उमी तरह सद्भाव और सहिष्णुता वर्तनी चाहिये जिम प्रकार उनके विषयभूत अनन्तधर्म वस्तुमे अविरोधी भावगे समाये हुए रहते है । दर्शन अर्थात् भावनात्मक साक्षात्कार :
तात्पर्य यह है कि विभिन्न दर्शनकार ऋषियोंने अपने-अपने दृष्टिकोणोंसे वस्तुके स्वरूपको जाननेकी चेष्टा की है और उसीका बार-बार मनन-चिन्तन
और निदध्यामन किया है । जिसका यह स्वाभाविक फल है कि उन्हें अपनी बलवती भावनाके अनुसार वस्तुका वह स्वरूप स्पष्ट झलका और दिखा । भावनात्मक साक्षत्कारके बलपर भक्तको भगवानका दर्शन होता है, इसकी अनेक घटनाएं सुनी जाती है। शोक या कामकी तीव्र परिणति होने पर मृत इष्टजन और प्रिय कामिनीका स्पष्ट दर्शन अनुभवका विषय ही है। कालिदासका यक्ष अपनी भावनाके वलपर मेघको सन्देशवाहक बनाता है और उसमे दूतत्वका स्पष्ट दर्शन करता है । गोस्वामी तुलसीदासको भक्ति
१. “ कामशोकभयोन्मादचौरस्वप्नाघुपप्लुताः ।
आभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽत्रस्थितानिव ॥"-प्रमाणवा० २।२८२।