Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 604
________________ जैनदर्शन इसका खास कारण है कि 'वेदान्त परम्परामें जो भेदका उल्लेख हुआ है, वह औपचारिक या उपाधिनिमित्तक है । भेद होने पर भी वे ब्रह्मको निर्विकार ही कहना चाहते है । सांख्यके परिणामवाद में वह परिणाम अवस्था या धर्य तक ही सीमित है, प्रकृति तो नित्य बनी रहती है । कुमारिल भेदाभेदात्मक कहकर भी द्रव्यकी नित्यताको छोड़ना नहीं चाहते, वे आत्मामें भले ही इस प्रक्रियाको लगा गये है, पर शब्दके नित्यत्व के प्रसंगमे तो उनने उसकी एकान्त - नित्यताका हो समर्थन किया है । अतः अन्य मतोंमे जो अनेकान्तदृष्टिका कही-कहीं अवसर पाकर उल्लेख हुआ है उसके पीछे तात्त्विकनिष्ठा नहीं है । पर जैन तत्त्वज्ञानकी ५६८ यह आधार - शिला है और प्रत्येक पदार्थ के प्रत्येक स्वरूपके विवेचन में इसका निरपवाद उपयोग हुआ है । इनने द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दोनोंको समानरूपसे वास्तविक माना है । इनका अनित्यत्व केवल पर्याय तक ही सीमित नहीं है किन्तु उससे अभिन्न द्रव्य भी स्वयं तद्रूपसे परिणत होता है । पर्यायोंको छोड़कर द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । 'स्याद्वाद और अनेकान्त दृष्टिका कहाँ कैसे उपयोग करना' इसी विषय पर जैनदर्शन में अनेकों ग्रन्थ बने है और उसकी सुनिश्चित वैज्ञानिक पद्धति स्थिर की गई है, जब कि अन्य मतोंमे इसका केवल सामयिक उपयोग ही हुआ है। बल्कि इस गठबंधन से जैनदृष्टिका विपर्यास हो हुआ है और उसके खंडन में उसके स्वरूपको अन्य मतोंके स्वरूपके साथ मिलाकर एक अजीव गुटाला हो गया है । "बौद्ध ग्रन्थोंये भेदाभेदात्मकताके खंडन के प्रसंग में जैन और जैमिनिका एक साथ उल्लेख है तथा विप्र, निर्ग्रन्थ और कापिलका एक ही रूपमें निर्देश हुआ है । जैन और जैमिनिका अभाव पदार्थ के विषय में दृष्टिकोण मिलता है, क्योंकि कुमारिल भी भावान्तररूप ही अभाव मानते हैं; पर १. “तेन यदुक्तं जैनजैमिनीयैः सर्वात्मकमेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे ।” - प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० १४३ । “को नामातिशयः प्रोक्तः विप्रनिर्ग्रन्थकापिलैः ।” - तत्वसं ० श्लो० १७७६ ।

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