Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 602
________________ ५६६ जैनदर्शन जिन प्रश्नोंको उनने अव्याकृत कहा है उन्हे अनेकांशिक भी कहा है। जो व्याकरणीय है, उन्हे 'एकांशिक-अर्थात् सुनिश्चितरूपमे जिनका उत्तर हो सकता है', कहा है, जैसे दुख आर्यमत्य है ही। बुद्धने प्रश्नव्याकरण चार प्रकारका बताया है-( दीर्घान० ३३ संगीतिपरियाय ) एकांशव्याकरण, प्रतिपृच्छा व्याकरणीय प्रश्न, विभज्य व्याकरणीय प्रश्न और स्थापनीय प्रश्न । इन चार प्रश्नव्याकरणोमे विभज्यव्याकरणीय प्रश्नमें एक हो वस्तुका विभाग करके उमका अनेक दृष्टियोसे वर्णन किया जाता है । ____ बादरायणके ब्रह्मसूत्रमे ( १।४।२०-२१ ) आचार्य आश्मरथ्य और औडुलोमिका मत आता है। ये भेदाभेदवादी थे, ब्रह्म तथा जीवमे भेदाभेदका समर्थन करते थे। शंकराचार्यने बृहदारण्यकभाष्य ( २।३।६ ) में भेदाभेदवादी भर्तृप्रपञ्चके मतका खंडन किया है। ये ब्रह्म और जगतमें वास्तविक एकत्व और नानात्व मानते थे। शंकराचार्यके बाद भास्कराचार्य तो भेदाभेदवादीके रूपमे प्रसिद्ध ही है । सांख्य प्रकृतिको परिणामी नित्य मानते है। वह कारणरूपसे एक होकर भी अपने विकारोंकी दृष्टिसे अनेक है, नित्य होकर भी अनित्य है। ___योगशास्त्रमे इसी तरह परिणामवादका समर्थन है। परिणामका लक्षण भी योगभाष्य ( ३११३ ) मे अनेकान्तरूपसे ही किया है । यथा'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः।' अर्थात् स्थिरद्रव्यके पूर्वधर्मको निवृत्ति होनेपर नूतन धर्मकी उत्पत्ति होना परिणाम है। १. “कतमे च पोट्ठपाद मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पञत्ता ? सस्सता लोको त्ति वा पोट्ठपाद मया अनेकसिको धम्मो देसितो पञ्जत्तो। असस्सतो लोकोत्ति खो पोट्ठपाद मया अनेकसिको..."-दीघनि० पोट्ठपादसुत्त । २. "दयो चेयं नित्यता-कूटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् ।" -योगद० व्यासभा० १।४।३३ ।

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