Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 612
________________ ५७६ जैनदर्शन साधनोंको अपेक्षा मानवके सन्मानके प्रति निष्ठा होनेसे । भारत राष्ट्रने तीर्थङ्कर महावीर और बोधिसत्त्व गौतमबुद्ध आदि सन्तोंकी अहिंसाको अपने संविधान और परराष्ट्रनीतिका आधार बनाकर विश्वको एकबार फिर भारतकी आध्यात्मिकताको झाँकी दिखा दी है । आज उन तीर्थङ्करोंकी साधना और तपस्या सफल हुई है कि समस्त विश्व सह-अस्तित्व और समझौतेकी वृत्तिको ओर झुककर अहिंसकभावनासे मानवताको रक्षाके लिये सन्नद्ध हो गया है। व्यक्तिको मुक्ति, सर्वोदयी समाजका निर्माण और विश्वकी शान्तिके लिये जैनदर्शनके पुरस्कर्ताओंने यही निधियाँ भारतीयसंस्कृतिके आध्यात्मिक कोशागारमें आत्मोत्सर्ग और निर्ग्रन्थताकी तिल-तिल साधना करके संजोई है । आज वह धन्य हो गया कि उसकी उस अहिंसा, अनेकान्तदृष्टि और अपरियहभावनाको ज्योतिसे विश्वका हिंसान्धकार समाप्त होता जा रहा है और सब सबके उदयमें अपना उदय मानने लगे हैं। राष्ट्रपिता पूज्य बापूको आत्मा इस अंशमें सन्तोषको साँस ले रही होगी कि उनने अहिंसा संजीवनका व्यक्ति और समाजसे आगे राजनैतिक क्षेत्रमें उपयोग करनेका जो प्रशस्त मार्ग सुझाया था और जिसकी अटूट श्रद्धामें उनने अपने प्राणोंका उत्सर्ग किया, आज भारतने दृढ़तासे उसपर अपनी निष्ठा ही व्यक्त नहीं की, किन्तु उसका प्रयोग नव एशियाके जागरण और विश्वशांतिके क्षेत्रमें भी किया है । और भारतकी 'भा' इसीमें है कि वह अकेला भी इस आध्यात्मिक दोपको संजोता चले, उसे स्नेह दान देता हुआ उसीमें जलता चले और प्रकाशको किरणें बखेरता चले। जीवनका सामंजस्य, नवसमाजनिर्माण और विश्वशातिके यही मूलमन्त्र हैं। इनका नाम लिये बिना कोई विश्वशान्तिकी बात भी नहीं कर सकता।

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