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स्याद्वाद-मीमांसा
५६७ भट्ट कुमारिल तो आत्मवाद' ( श्लो० २८ ) मे आत्माका व्यावृत्ति और अनुगम उभय रूपसे समर्थन करते है। वे लिखते है कि यदि आत्माका अत्यन्त नाश माना जाता है तो कृतनाश और अकृतागम दूपण आता है और यदि उसे एकरूप माना जाना है तो मुग्व-दुःख आदिका उपभोग नहीं बन सकता । अवस्थाएं स्वरूपने परस्पर विरोधी है, फिर भी उनमें एक सामान्य अविरोधी रूप भी है। इस तरह आन्माउभयात्मक है ।" ( आत्मवाद श्लो० २३-३०)। ____ आचार्य हेमचन्द्रने वीतरागस्तोत्र ( ८1८-१० ) मे बहुत सुन्दर लिखा है कि
"विज्ञानस्येकमाकारं नानाकारकरम्बितम् ।
इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।८।।" अर्थात् एक ज्ञानको अनेकाकार माननेवाले ममझदार बौद्धोंको अनेकान्तका प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये ।
"चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् ।
योगो वैशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥९॥" अर्थात् अनेक आकारवाले एक चित्ररूपको माननेवाले नैयायिक और वैशेषिकको अनेकान्तका प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये।
"इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यर्विद्धैगुम्फितं गुणैः ।
सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥१॥" अर्थात् एक प्रधान ( प्रकृति ) को मत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंवाली माननेवाले समझदार सांख्यको अनेकान्तका प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये। ___ इस तरह सामान्यरूपसे ब्राह्मणपरस्परा, मांख्य-योग और बौद्धोंमें भी अनेक दृष्टिसे वस्तुविचारकी परम्परा होने पर भी क्या कारण है जो अनेकान्तवादीके रूपमे जैनोंका ही उल्लेख विशेष रूपसे हुआ है और वे ही इस शब्दके द्वारा पहिचाने जाते है ? १. "तस्मादुभयहानेन व्यावृत्यनुगमात्मकः । पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवतू ॥१८॥"-मो० श्लो० ।