Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 609
________________ ११. जैनदर्शन और विश्वशान्ति विश्वशान्तिके लिये जिन विचारसहिष्णुता, समझौतेकी भावना, वर्ण, जाति रंग और देश आदिके भेदके बिना सबके समानाधिकारकी स्वीकृति, व्यक्तिस्वातन्त्र्य और दूसरेके आन्तरिक मामलो मे हस्तक्षेप न करना आदि मूलभूत आधारोकी अपेक्षा है उन्हें दार्शनिक भूमिकापर प्रस्तुत करनेका कार्य जैनदर्शनने बहुत पहलेसे किया है । उसने अपनी अनेकान्तदृष्टिसे विचारने की दिशामे उदारता, व्यापकता और सहिष्णुताका ऐसा पल्लवन किया है, जिससे व्यक्ति दूसरेके दृष्टिकोणको भी वास्तविक और तथ्यपूर्ण मान सकता है । इसका स्वाभाविक फल है कि समझौते - की भावना उत्पन्न होती है । जब तक हम अपने ही विचार और दृष्टिकोणको वास्तविक और तथ्य मानते है तब तक दूसरे के प्रति आदर और प्रामाणिकताका भाव ही नहीं हो पाता । अतः अनेकान्तदृष्टि दूसरोंके दृष्टिकोणके प्रति सहिष्णुता, वास्तविकता और समादरका भाव उत्पन्न करती है । जैनदर्शन अनन्त आत्मवादी है । वह प्रत्येक आत्माको मूलमे समानस्वभाव और समानधर्मवाला मानता है । उनमे जन्मना किसी जातिभेद या अधिकार भेदको नहीं मानता। वह अनन्त जड़पदार्थो का भी स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है । इस दर्शनने वास्तवबहुत्वको मानकर व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी साधार स्वीकृति दी है । वह एक द्रव्यके परिणमनपर दूसरे द्रव्यका अधिकार नहीं मानता। अतः किसी भी प्राणीके द्वारा दूसरे प्राणीका शोषण, निर्दलन या स्वायत्तीकरण ही अन्याय है । किसी चेतनका अन्य जड़पदार्थोको अपने अधीन करनेकी चेष्टा करना भी अनषिकारचेष्टा है । इसी तरह किसी देश या राष्ट्रका दूसरे देश या राष्ट्रको अपने आधीन करना, उसे अपना उपनिवेश बनाना ही मूलतः अनधिकार चेष्टा है, अतएव हिंसा और अन्याय है । वास्तविक स्थिति ऐसी होनेपर भी जब आत्माका शरीरसंधारण और समाजनिर्माण जड़पदार्थोके बिना संभव नहीं है; तब यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि आखिर शरीरयात्रा, समाज निर्माण और राष्ट्रसंक्षा आदि कैसे किये जाँय ? जब अनिवार्य स्थितिमे जड़पदार्थोंका संग्रह

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