Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 608
________________ ५७२ जैनदर्शन इस तरह इन आठ दोषोंका परिहार अकलंक, हरिभद्र, सिंहगणिक्षमाश्रण आदि सभी आचार्योंने व्यवस्थित रूपसे किया है । वस्तुतः बिना समझे ऐसे दूषण देकर जैन तत्त्वज्ञानके साथ विशेषतः स्याद्वाद और सप्तभंगीके स्वरूपके साथ बड़ा अन्याय हुआ है । भ० महावीर अपने में अनन्तधर्मा वस्तुके सम्बन्धमें व्यवस्थित और पूर्ण निश्चयवादी थे | उनने न केवल वस्तुका अनेकान्तस्वरूप ही बताया किन्तु उसके जानने देखने के उपाय - नयदृष्टियाँ और उसके प्रतिपादनका प्रकार ( स्याद्वाद ) भी बताया। यही कारण है कि जैनदर्शन ग्रन्थोंमें उपेयतत्त्व के स्वरूपनिरूपणके साथ-ही-साथ उपायतत्त्वका भी उतना हो विस्तृत और साङ्गोपाङ्ग वर्णन मिलता है । अतः स्याद्वाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्वाद, न किंचित्वाद, न संभववाद और न अभीष्टवाद; किन्तु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है । इसे संस्कृत में 'कथञ्चित्वाद' शब्दसे कहा है, जो एक सुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है । यह संजयके अज्ञान या विक्षेपवादसे तो हर्गिज नहीं निकला है; किन्तु संजयको जिन बातोंका अज्ञान था और बुद्ध जिन प्रश्नोंको अव्याकृत कहते थे, उन सबका सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे निश्चय करनेवाला अपेक्षावाद है । समन्वयकी पुकार : आज भारतरत्न डॉ० भगवानदासजी जैसे मनीषी समन्वयको आवाज बुलन्द कर रहे है । उनने अपने 'दर्शनका प्रयोजन', 'समन्वय' आदि ग्रन्थोंमें इस समन्वय-तत्त्वकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है । किन्तु वस्तुको अनन्तधर्मा माने बिना तथा स्याद्वाद - पद्धति से उसका विचार किये बिना समन्वय के सही स्वरूपको नहीं पाया जा सकता । जैन दर्शनकी भारतीय संस्कृतिको यही परम देन है जो इसने वस्तुके विराट् स्वरूपको सापेक्ष दृष्टिकोण से देखना सिखाया। जैनाचार्योने इस समन्वय-पद्धतिपर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे है । आशा है इस अहिंसाघार, और मानस अहिंसाके अमृतमय प्राणभूत स्याद्वादका जीवनको संवादी बनाने यथोचित उपयोग किया जायगा ।

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