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पदार्थ का स्वरूप
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गुण और धर्म :
वस्तुमें गुण परिगणित हैं, किन्तु परकी अपेक्षा व्यवहारमें श्रानेवाले धर्म अनन्त होते हैं । गुण स्वभावभूत हैं और इनकी प्रतीति परनिरपेक्ष होती है, जबकि धर्मोकी प्रतीति परसापेक्ष होती है और व्यवहार के लिए इनकी अभिव्यक्ति वस्तुकी योग्यताके अनुसार होती रहती है । जीवके असाधारण गुण ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि और साधारण गुण हैं वस्तुत्व, प्रमेयत्व, सत्त्व आदि हैं । पुद्गलके रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आसाधारण गुण हैं । धर्म द्रव्यका गतिहेतुत्व, अधर्म द्रव्यका स्थितिहेतुत्व, आकाशका अवगाहननिमित्तत्व और कालका वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण है । इनके साधारण गुण वस्तुत्व, सत्त्व, प्रमेयत्व
र अभिधेयत्व आदि हैं । जीवमें ज्ञानादि गुणोंकी सत्ता और प्रतीति परनिपेक्ष अर्थात् स्वाभाविक है, किन्तु छोटापन बड़ापन, पितृत्व-पुत्रत्व और गुरुत्व - शिष्यत्व आदि धर्म परसापेक्ष हैं । यद्यपि इनकी योग्यता जीव में है, पर ज्ञानादिके समान ये स्वरसतः गुण नहीं हैं । इसी तरह पुद्गलमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये तो स्वाभाविक - परनिरपेक्ष गुण हैं, परन्तु छोटापन, बड़ापन, एक, दो, तीन आदि संख्याएँ और संकेतके अनुसार होने वाली शब्दवाच्यता आदि ऐसे धर्म हैं जिनकी अभिव्यक्ति व्यवहारार्थ होती है । एक ही पदार्थ अपने से भिन्न अनन्त दूर-दूरतर और दूरतम पदार्थों की अपेक्षा अनन्त प्रकारकी दूरी और समीपता रखता है । इसी तरह अपने से छोटे और बड़े अनन्त परपदार्थोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका छोटापन और बड़ापन रखता है । पर ये सब धर्म चूँकि परसापेक्ष प्रकट होनेवाले हैं, अतः इन्हें गुणोंकी श्रेणीमें नहीं रख सकते । गुणका लक्षण आचार्यने निम्नलिखित प्रकारसे किया है—
""" गुण इति दव्वविहाणं दव्ववियारो य पज्जवो भणियो ।”
अर्थात् - गुण द्रव्यका विधान, यानी निज प्रकार है, और पर्याय द्रव्यका १. उद्धृत - सर्वार्थसिद्धि ५।३८ ।