________________
जैनदर्शन
१९४
जैनदर्शनका सदसत्कार्यवाद :
जैनदर्शन 'सदसत्कार्यवादी' है । उसका सिद्धान्त है कि प्रत्येक पदार्थमे मूलभूत द्रव्ययोग्यताएँ होनेपर भी कुछ तत्पर्याययोग्यताएँ भी होती है । ये पर्याययोग्यताएँ मूल द्रव्ययोग्यताओंसे बाहर की नहीं है, किन्तु उन्हीं में से विशेष अवस्थाओं में साक्षात् विकासको प्राप्त होनेवाली है । जैसे मिट्टीप पुद्गल के परमाणुओमें पुद्गलकी घट-पट आदिरूपसे परिणमन करने की सभी द्रव्ययोग्यताएं है, पर मिट्टी की तत्पर्याययोग्यता घटको ही साक्षात् उत्पन्न कर सकती है, पट आदिको नहीं । तात्पर्य यह है कि कार्य अपने कारणद्रव्यमे द्रव्ययोग्यताके साथ ही तत्पर्यायोग्यता या शक्ति के रूपमें रहता ही है । यानी उसका अस्तित्व योग्यता अर्थात् द्रव्यरूपसे ही है, पर्यायरूपसे नही है ।
सांख्यके यहाँ कारणद्रव्य तो केवल एक 'प्रधान' ही है, जिसमें जगतके समस्त कार्योंके उत्पादनकी शक्ति है । ऐसी दशा में जबकि उसमें शक्तिरूपसे सब कार्य मौजूद है, तव जमुक समयमें अमुक ही कार्य उत्पन्न हो यह व्यवस्था नहीं बन सकती । कारणके एक होनेपर परस्पर विरोधी अनेक कार्योकी युगपत् उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । अतः सांख्य के यह कहने का कोई विशेष अर्थ नहीं रहता कि 'कारणमें कार्य शक्तिरूपसे है, व्यक्तिरूपसे नहीं', क्योंकि शक्तिरूपसे तो मव सब जगह मौजूद है । 'प्रधान' चूँकि व्यापक और निरंश है, अतः उससे एकमाथ विभिन्न देशोंमें परस्पर विरोधी अनेक कार्योका आविर्भाव होना प्रतीतिविरुद्ध है । सीधा प्रश्न तो यह है कि जब सर्वशक्तिमान् 'प्रधान' नामका कारण सर्वत्र मौजूद है, तो मिट्टी के पिण्डसे घटकी तरह कपड़ा और पुस्तक क्यों नहीं उत्पन्न होते ?
जैन दर्शनका उत्तर तो स्पष्ट है कि मिट्टीके परमाणुओं में यद्यपि पुस्तक और पट रूपसे परिणमन करनेकी मूल द्रव्ययोग्यता है, किन्तु मिट्टी