Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 554
________________ ५१८ जैनदर्शन ३. क्या लोक , हाँ, लोक दोनों दृष्टियोंशाश्वत से क्रमशः विचार करने और पर शाश्वत भी है और अशाश्वत है ? अशाश्वत भी है। ४ क्या लोक मैं जानता अव्याकृत हाँ, ऐसा कोई शब्द दोनोंरूप होऊँ, तो.. ." नहीं, जो लोकके परिनहीं है, बताऊँ पूर्ण स्वरूपको एक अनुभय (अजान, अनिश्चय) साथ समग्रभावसे कह सके, अतः पूर्ण रूपसे वस्तु अनुभय है, अव क्तव्य है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर उनसे पिंड छुड़ा लेते हैं; महावीर उन्हींका वास्तविक और युक्तिसंगत' समाधान करते हैं । इस पर भी राहुलजी यह कहनेका साहस करते हैं कि 'संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जाने पर संजयके बादको ही जैनियोंने अपना लिया।' यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि 'भारतमें रही परतंत्रताको परतंत्रता-विधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर भारतीयोंने उसे अपरतंत्रता (स्वतंत्रता) के रूपमें अपना लिया; क्योंकि अपरतंत्रतामें भी 'प र तन्त्र ता' ये पाँच अक्षर तो मौजूद हैं हो।' या 'हिंसाको ही बुद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुप्त होने पर 'अहिंसाके रूपसे अपना लिया है; क्योंकि अहिंसामें भी "हिं सा' ये दो अक्षर है ही।' जितना परतन्त्रताका कि अपरतन्त्रातासे और हिंसाका अहिंसासे भेद है उतना ही संजयके अनिश्चय १. बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोंका पूरा समाधान तथा उनके आगमिक अवतरणोंके लिये देखो, जैनतर्कवातिककी प्रस्तावना पृ० १४-२४ ।

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