Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 595
________________ स्याद्वाद-मीमांसा "कार्यरूपसे अनेक और कारणरूपसे एक हैं, जैसे कि कुंडल आदि पर्यायोंसे भेद और सुवर्णरूपसे अभेद होता है।" इस तरह ब्रह्म और प्रपञ्चके भेदाभेदका समर्थन करनेवाले आचार्य जो एकान्तवादियोंको 'प्रज्ञापराध, अनिरूपितप्रमाणप्रमेय' आदि विचित्र विशेषणोंसे सम्बोधित करते हैं, वे स्वयं दिगम्बर-विवसन मतका खंडन करते समय कैसे इन विशेषणोंसे बच सकते हैं ? पृ० १०३ में फिर ब्रह्मके एक होने पर भी जोव और प्राज्ञके भेदका कमर्थन करते हुए लिखा है कि "जिस प्रकार पृथिवोत्व समान होने पर भी पद्मराग तथा क्षुद्र पाषाण आदिका परस्पर भेद देखा जाता है उसी तरह ब्रह्म और जीवप्राज्ञमें भी समझना चाहिये। इसमें कोई विरोध नहीं है।" पृ० १६४ में फिर ब्रह्मके भेदाभेद रूपके समर्थनका सिद्धान्त दुहराया गया है। मैने यहाँ जो भास्कराचार्यके ब्रह्मविषयक भेदाभेदका प्रकरण उपस्थित किया है, उसका इतना ही तात्पर्य है कि 'भेद और अभेदमें परस्पर विरोध नहीं है, एक वस्तु उभयात्मक हो सकती है। यह बात भास्कराचार्यको सिद्धान्तरूपमें इष्ट है। उनका 'ब्रह्मको सर्वथा नित्य स्वीकार करके ऐसा मानना उचित हो सकता है या नहीं ?' यह प्रश्न यहाँ विचारणीय नहीं है। जो कोई भी तटस्थ व्यक्ति उपर्युक्त भेदाभेदविषयक शंका-समाधानके साथ-ही-साथ इनके द्वारा किये गये जैनमतके खंडनको पढ़ेगा, वह मतासहिष्णुताके स्वरूपको सहज ही समझ सकेगा ! ____ यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि स्याद्वादके भंगोंको ये आचार्य 'अनिश्चय' के खातेमें तुरंत खतया देते है ! और 'मोक्ष है भी नहीं भी' कहकर अप्रवृत्तिका दूषण दे बैठते हैं और दूसरोंको उन्मत्त तक कह देते है ! भेदाभेदात्मकतत्त्वके समर्थनका वैज्ञानिक प्रकार इस तत्त्वके द्रष्टा जैन आचार्योसे ही समझा जा सकता है। यह परिणामी नित्य पदार्थमें ही संभव है, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्यमें नहीं; क्योंकि द्रव्य स्वयं

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