Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 597
________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५६१ श्रीश्रीकण्ठं और अनेकान्तवाद : श्रीकण्ठाचार्य अपने श्रीकण्ठभाष्यमें उसी पुरानी विरोधवाली दलोलको दुहराते हुए कहते हैं कि "जैसे पिंड, घट और कपाल अवस्थाएं एक साथ नहीं हो सकतीं, उसी तरह अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्म भी।" परन्तु एक द्रव्यकी कालक्रमसे होनेवाली पर्याय युगपत् सम्भव न हों, तो न सही, पर जिस समय घड़ा स्वचतुष्टयसे 'सत्' है उसी समय उसे पटादिको अपेक्षा 'असत्' होनेमें क्या विरोध है ? पिंड, घट और कपाल पर्यायोंके रूपसे जो पुद्गलाणु परिणत होंगे, उन अणुद्रव्योंकी दृष्टिसे अतीतका संस्कार और भविष्यकी योग्यता वर्तमानपर्यायवाले द्रव्यमें तो है ही। आप 'स्यात्' शब्दको ईषदर्थक मानते हैं । पर 'ईषत्' से स्याद्वादका अभिधेय ठीक प्रतिफलित नहीं होता । 'स्यान्' का वाच्यार्थ है-'सुनिश्चित दष्टिकोण ।' श्रीकण्ठभाष्यको टीकामें श्रीअप्यय्यदीक्षित को देश काल और स्वरूप आदि अपेक्षाभेदसे अनेक धर्म स्वीकार करना अच्छा लगता है और १. “जंना हि सप्तभङ्गीन्यायेन स्याच्छब्द ईषदर्थः । एतदयुक्तम् ; कुतः ? एकस्मिन वस्तुनि सत्त्वासत्त्वनित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदादीनामसंभवात् । पर्यायभाविनश्च द्रव्यस्यास्तित्वनास्तिस्वादिशब्दवुद्धिविषयाः परस्परविरुद्धाः पिण्टन्वघटत्वकपालत्वाद्यवस्थावत् युगपन्न संभवन्ति । अतो विरुद्ध एव जैनवादः।" -श्रीकण्ठभा० २।२।३३ । २. “यद्येवं पारिभाषिकाऽयं सप्तभङ्गीनयः स्वीक्रियत एव। घटादिः स्वदेशेऽस्ति अन्यदेशे नास्ति, स्वकालेऽस्ति अन्यकाले नास्ति, स्वात्मना अस्ति अन्यात्मना नास्ति, इति देशकालप्रतियोगिरूपोपाधिभेदेन सत्त्वासत्त्वसमावेशे लौकिकपरीक्षकाणां विप्रतिपत्त्यसंभवात् । न चैतावता पराभिमतं वस्त्वनैकान्त्यमापद्यते-स्वकाले सदेव, अन्यकाले असदेव इत्यादि नियमस्य भङ्गाभावात् । स देश इह नास्ति, स काल इदानों नास्तीत्यादिप्रतीतौ देशकालाधुपाध्यन्तराभावात्, तत्राप्युपाध्यन्तरापेक्षणेऽनवस्थानात् । इतरान् अङ्गीकारयितु परं गुडजिहिकान्यायेन देशकालाद्युपाधिभेदमन्तर्भाव्य सत्त्वासत्त्वप्रतीतिरुपन्यस्यते। वस्तुतो विमृश्यमाना सा निरुपाधिकैव सत्त्वासत्त्वादिसंकरे प्रमाणम् । अत एव स्याद्वादिना 'घटोऽस्ति घटी नास्ति पटः सन् पटोऽसन्' इत्यादि प्रत्यक्षप्रतीतिमेव सत्वासत्वाचनैकान्त्ये प्रमाणमुपगच्छन्ति,. परस्परविरुद्धधर्मसमावेशे सर्वानुभवसिद्ध. स्तावदुपाधिभेदो नापह्नोतु शक्यते। लोकमर्यादामनतिक्रममाणेन देशकालादिसत्त्व

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