Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 598
________________ ५६२ जैनदर्शन 'अपेक्षाभेदसे अनेक धर्म स्वीकार करनेमें लौकिक और परीक्षकोंको कोई विवाद नहीं हो सकता ।' यह भी वे मानते है, परन्तु फिर हिचक कर कहते है कि 'सप्तभंगीका यह स्वरूप जैनोंको इष्ट नहीं है ।' वे यह आरोप करते है कि 'स्याद्वादी तो अपेक्षाभेदसे अनेक धर्म नहीं मानते किन्तु बिना अपेक्षा ही अनेक धर्म मानते है ।' आश्चर्य है कि वे आचार्य अनन्तवीर्य कृत --- " तद्विधानविवक्षायां स्यादस्तीति गतिर्भवेत् । स्यान्नास्तीति प्रयोगः स्यात्तन्निषेधे विवक्षिते ।” इत्यादि कारिकाओंको उद्धृत भी करते है और स्याद्वादियोंपर यह आरोप भी करते जाते है कि 'स्याद्वादी बिना अपेक्षाके ही सब धर्म मानते है ।' इन स्पष्ट प्रमाणों के होते हुए भी ये कहते हैं कि 'दूसरोके गले उतारनेके लिये जैन लोग अपेक्षारूपी गुड़ चटा देते है, वस्तुतः वे अपेक्षा मानते नहीं है, वे तो निरुपाधि सत्त्व असत्त्व और मानना चाहते है ।' इस मिथ्या आरोपके लिये क्या कहा जाय ? और इसी आधारपर वे कहते है कि 'स्त्री माता, पत्नी आदि आपेक्षिक व्यवहार न होनेसे स्याद्वादमें लोकविरोध होगा ।' भला, जो दूषण स्याद्वादी एकान्तवादियोंको देते है वे ही दूषण जैनोंको जबरदस्ती दिये जा रहे है, इस अन्धेरका कोई ठिकाना है ! जैनो के संख्याबद्ध ग्रन्थ इस स्याद्वाद और सप्तभङ्गीकी विविध अपेक्षाओंसे भरे पड़े है और इसका वैज्ञानिक विवेचन भी वहीं मिलता है । फिर भी उन्हीके मत्थे ये सब दूषण मढ़े जा रहे है और यहाँ तक लिखा जा रहा है कि यह लोकविरोधी स्याद्वाद सर्वतः बहिष्कार्य है ! किमाश्चर्यमतः निषेधेऽपि देशकालाद्युपाध्यवच्छेदः अनुभूयत एव । इहात्माश्रयः, परस्पराश्रयः, अनवस्था वा न दोषः, यथा प्रमेयत्वाभिधेयत्वादिवृत्तौ यथा च बीजाङ्कुरादिकार्यकारणभावे विरुद्धधर्मसमावेशे । सर्वथोपाधिभेदं प्रत्याचक्षाणस्य चायमस्याः पुत्रः अस्याः पतिः, अस्याः पिता अस्याश्श्वसुर इत्यादिव्यवस्थापि न सिद्ध्येदिति कथं तत्र तत्र स्याद्वादे मातृत्वाद्युचित व्यवहारान् व्यवस्थयाऽनुतिष्ठेत् । तस्मात् सर्वबहिष्कार्योऽयमनेकान्तवादः ।" - श्रीकण्ठभा० टी० पृ० १०३ ।

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