Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 599
________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५६३ परम् !! इसकी लोकाविरोधिता आदिकी सिद्धिके लिये इस ‘स्याद्वाद और सप्तभङ्गी' प्रकरणमें पर्याप्त लिखा गया है । श्रीरामानुजाचार्य और स्यावाद : श्री रामानुजाचार्य भी स्याहादमें उसी तरह निरुपाधि या निरपेक्ष सत्त्वासत्त्वका आरोप करके विरोध दूषण देते है। वे स्याद्वादियोंको समझानेका साहस करते हैं कि "आप लोग प्रकारभेदसे धर्मभेद मानिये।" गोया स्याद्वादी अपेक्षाभेदको नहीं समझते हों, या एक ही दृष्टि से विभिन्न धर्मोका सद्भाव मानते हों। अपेक्षाभेद, उपाधिभेद या प्रकारभेदके आविष्कारक आचार्योंको उन्हींका उपदेश देना कहाँ तक शोभा देता है ? स्याद्वादका तो आधार ही यह है कि विभिन्न दृष्टिकोणोंसे अनेक धर्मोको स्वीकार करना और कहना। सच पूंछा जाय तो स्याद्वादका आश्रयण किये बिना ये विशिष्टाद्वैतताका निर्वाह नहीं कर सकते है। श्रीवल्लभाचार्य और स्याद्वाद : श्रीवल्लभाचार्य भी विवसन-समयमें प्राचीन परम्पराके अनुसार विरोध दूषण ही उपस्थित करते है । वे कहना चाहते है कि "वस्तुतः विरुद्धधर्मान्तरत्व ब्रह्ममे ही प्रमाणसिद्ध हो सकता है ।" 'स्यात्' शब्दका अर्थ इन्होंने 'अभीष्ट किया है। आश्चर्य तो यह है कि ब्रह्मको निर्विकार १. "द्रव्यस्य तद्विशेषणभूतपर्यायशब्दाभिधेयावस्थाविशेषस्य च 'इदमित्यम्' इति प्रतीतेः, प्रकारिप्रकारतया पृथक् पदार्थत्वात् नैकस्मिन् विरुद्धप्रकारभूतसत्त्वासत्त्वस्वरूपधर्मसमावेशो युगपत् संभवति "एकस्य पृथिवीद्रव्यस्य घटत्वाश्रयत्वं शरावत्वाश्रयत्वं च प्रदेशभेदेन नत्वेकेन प्रदेशेनोभयाश्रयत्वं, यथैकस्य देवदत्तस्य उत्पत्तिविनाशयोग्यत्वं कालभेदेन । न घेतावता द्वयात्मकत्वमपि तु परिणामशक्तियोगमात्रम् ।" -वेदान्तदीप पृ० १११-१२ २. 'ते हि अन्तनिष्ठाः प्रपञ्चे उदासीनाः सप्तविभक्तोः परेच्छया वदन्ति । स्याच्छ दोऽभीष्टवचनः । तद्विरोधेनासम्भवादयुक्तम् ।' -अणुभा० २।२।३३ ।

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