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जैनदर्शन
अंकुरको उत्पत्ति आदिरूपसे कार्यकारणसम्बन्ध तो नहीं देखा जाता । कारणभूत मिट्टी और सुवर्ण आदिसे ही तज्जन्य कार्य सर्वदा अनुस्यूत देखे जाते हैं । अतः आँखें बन्द करके जो यह परस्पर असंगतिरूप विरोध कहा जाता है वह या तो बुद्धि-विपर्यासके कारण कहा जाता है या फिर प्रारम्भिक श्रोत्रियके कानोंको ठगनेके लिए । शीत और उप्ण स्पर्श हमेशा भिन्न आधारमें रहते हैं, उनमें न तो कभी उत्पाद्य उत्पादक सम्बन्ध रहा है और न आधाराधेयभाव हो, अतः उनमें विरोध हो सकता है । अतः 'शीतोष्णवत्' यह दृष्टान्त उचित नहीं है । शंकाकार बड़ी प्रगल्भता - से कहता है कि
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शंका- 'यह स्थाणु है या पुरुष' इस संशयज्ञानकी तरह भेदाभेदज्ञान अप्रमाण क्यों नहीं है ?
उत्तर - परस्परपरिहारवालोंका ही सह अवस्थान नहीं हो सकता । संशयज्ञानमें किसी भी प्रमेयका निश्चय नहीं होता, अतः वह अप्रमाण है । किन्तु यहाँ तो मिट्टी, सुवर्ण आदि कारण पूर्वसिद्ध हैं, उनसे बादमें उत्पन्न होनेवाला कार्य तदाश्रित ही उत्पन्न होता है । कार्य कारणके समान ही होता है । कारणका स्वरूप नष्टकर भिन्न देश या भिन्न कालमें कार्य नहीं होता । अतः प्रपञ्चको मिथ्या कहना उचित नहीं है । किसी पुरुषकी अपेक्षा वस्तुमें सत्यता या असत्यता नहीं आंकी जा सकती कि 'मुमुक्षुत्रोंके लिये प्रपञ्च असत्य है और इतर व्यक्तियोंके लिये सत्य है ।' रूपको अन्धेके लिये असत्य और आंखवालेको सत्य नहीं कह सकते । पदार्थ पुरुषकी इच्छानुसार सत्य या असत्य नहीं होते । सूर्य स्तुति करने - वाले और निन्दाकरने वाले दोनोंको ही तो तपाता है । यदि मुमुक्षुओंके लिये प्रपञ्च मिथ्या हो और अन्यके लिए तथ्य; तो एकसाथ तथ्य और मिथ्यात्वका प्रसंग होता हैं । ......... 'अतः ब्रह्मको भिन्नाभिन्न रूप मानना चाहिये । कहा भी है