Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 564
________________ ५२८ जैनदर्शन काल्पनिक एकत्व मौलिक वस्तुकी संज्ञा नहीं पा सकता । यह कैसे संभव है कि चेतन और अचेतन दोनों ही एक सत् के प्रातिभासिक विवर्त हों । जिस काल्पनिक समन्वयकी ओर उपाध्यायजीने संकेत किया है; उस ओर जैन दार्शनिकोंने प्रारंभमे ही दृष्टिपात किया है। परमसंग्रहनयकी दृष्टिमे सद्रूपसे यावत् चेतन-अचेतन द्रव्योंका संग्रह करके 'एकसत्' इस शब्दव्यवहारके करनेमे जैन दार्शनिकोंको कोई आपत्ति नहीं है । पर यह एकत्व वस्तुसिद्ध भेदका अपलाप नहीं कर सकता । मैकड़ों आरोपित और काल्पनिक व्यवहार होते है, पर उनसे मौलिक तत्त्व - व्यवस्था नहीं की जा सकती । 'एक देश या एक राष्ट्र' अपनेमें क्या वस्तु है ? भूखंडोंका अपनाअपना जुदा अस्तित्व होनेपर भी बुद्धिगत सीमाकी अपेक्षा राष्ट्रोंकी सीमाएँ बनती बिगड़ती रहती है । उसमे व्यवहारकी सुविधा के लिये प्रान्त, जिला आदि संज्ञाएँ जैसे काल्पनिक है— मात्र व्यवहारमत्य है, उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिक सत् होकर मात्र व्यवहारसत्य ही बन सकता है और कल्पनाकी दौड़का चरमबिन्दु भी हो सकता है, पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थमत् होना नितान्त असंभव है; आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण कर चुका है । अतः इतना बड़ा अभेद, जिसमें चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि सभी लीन हो जाँय, कल्पनासाम्राज्यको चरम कोटि है । और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न माननेके कारण जैनदर्शनका स्याद्वाद - सिद्धान्त यदि आपको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप ममझनेमे नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है, तो हो, पर वह वस्तुको सीमाका उल्लंघन नहीं कर मकता और न कल्पनालोककी लम्बी दौड़ ही लगा सकता है । 'स्यात्' शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्यायवाची नहीं मानते, यह तो प्रायः निश्चित है; क्योंकि आप स्वयं लिखते है ( पृ० १७३) कि "यह अनेकान्तवाद संशयवादका रूपान्तर नहीं है" । पर आप उसे मंभववाद अवश्य कहना चाहते है । परन्तु 'स्यात् ' का अर्थ 'संभवतः ' करना भी न्यायसंगत नहीं है; क्योंकि संभावना, संशयगत उभयकोटियों

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