Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 583
________________ स्याद्वाद-मीमांसा परस्पर अभिन्न है; क्योंकि ऊंटसे अभिन्न द्रव्यत्वसे दहीका तादात्म्य है। अतः स्याद्वाद मिथ्यावाद है।" आदि । यह ठीक है कि समस्त पदार्थ अपने-अपने कारणोंसे स्वस्वभावस्थित उत्पन्न होते है । 'परन्तु एक पदार्थ दूसरेसे भिन्न है' इसका अर्थ है कि जगत इतरेतराभावात्मक है । इतरेतराभाव कोई स्वतन्त्र पदार्थ होकर दो पदार्थोंमें भेद नहीं डालता, किन्तु पटादिका इतरेतराभाव घटरूप है और घटका इतरेतराभाव पटादिरूप है । पदार्थमें दोनों रूप है-स्वास्तित्व और परनास्तित्व । परनास्तित्वरूपको ही इतरेतराभाव कहते है। दो पदार्थ अभिन्न अर्थात् एकसत्ताक तो उत्पन्न होते ही नहीं है। जितने पदार्थ हैं सब अपनी-अपनी धारासे बदलते हुए स्वरूपस्थ है। दो पदार्थों के स्वरूपका प्रतिनियत होना ही एकका दूसरेमें अभाव है, जो तत्-तत् पदार्थके स्वरूप ही होता है, भिन्न पदार्थ नहीं है । भिन्न अभावमें तो जैन भी यही दूषण देते हैं। द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तुमें कालक्रमसे होनेवाली अनेक पर्याये परस्पर उपादानोपादेयरूपसे जो अनाद्यनन्त बहती हैं, कभी भी उच्छिन्न नहीं होती और न दूसरी धारासे संक्रान्त होती है, इसोको ऊर्ध्वतासामान्य, द्रव्य या ध्रौव्य कहते हैं। अव्यभिचारी उपादान-उपादेयभावका नियामक यही - १. "तेन योऽपि दिगम्बरो मन्यते-नास्माभिः घटपटादिष्वेकं सामान्यमिष्यते, तेषामेकान्तमेदात् , किन्त्वपरापरेण पर्यायेणावस्थासंशितेन परिणामि द्रव्यम्, एतदेव च सर्वपर्यायानुयायित्वात् सामान्यमुच्यते । तेन युगपदुल्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् इति वस्तुनो लक्षणमिति। तदाह-घटमौलिसुवर्णार्थी "सोऽप्यत्र निराकृत एवं द्रष्टव्यः, तदति समान्यविशेषवति वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने अत्यन्तमभेदभेदौ स्याताम् अथ सामान्यविशेषयोः कथञ्चिभेद इष्यते । अत्राप्याह-अन्योन्यमित्यादि । सादृशासदृशात्मनोः सामान्यविशेषयोः यदि कथञ्चिदन्योन्यं परस्परं भेदः तदैकान्तेन तयोर्भर्द एव स्यात् "दिगम्बरम्यापि तद्वति वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने अत्यन्तमेदामेदो स्माताम् । मिथ्यावाद एव स्याद्वादः ॥" प्र० वा० स्ववृ० टी० पृ० ३३२-४२ ।

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