Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 585
________________ स्याद्वाद-मीमांसा कहते है वे सब अनेक परमाणुओंके स्कन्ध है। उन्हे हम व्यवहारार्थ ही एक द्रव्य कहते है। जिन परमाणुओंके स्कन्धमे सुवर्ण जैसा पीला रंग, वजन, लचीलापन आदि जुट जाता है उन्हे हम प्रतिक्षण सदृश स्कन्धरूप परिणमन होनेके कारण स्थूल दृष्टिसे 'सुवर्ण' कह देते है। इसी तरह मिट्टी, तन्तु आदिमे भी समझना चाहिये। सुवर्ण ही जब आयुर्वेदीय प्रयोगोंसे जीर्णकर भस्म बना दिया जाता है, और वही पुरुषके द्वारा भुक्त होकर मलादि रूपसे परिणत हो जाता है तब भी एक अविच्छिन्न धारा परमाणुओंकी बनी ही रहती है, 'सुवर्ण' पर्याय तो भस्म आदि बनकर समाप्त हो जाती है । अतः अनेकद्रव्योंमे व्यवहारके लिये जो सादृश्यमूलक अभेदव्यवहार होता है वह व्यवहारके लिये ही है। यह सादृश्य बहुतसे अवयवों या गुणोंकी समानता है और यह प्रत्येकव्यक्तिनिष्ठ होता है, उभयनिष्ठ या अनेकनिष्ठ नही। गौका सादृश्य गवयनिष्ठ है और गवयका सादृश्य गौनिष्ठ है । इस अर्थमे मादृश्य उस वस्तुका परिणमन ही हुआ, अत एव उससे वह अभिन्न है । ऐसा कोई सादृश्य नही है जो दो वस्तुओंमे अनुस्यूत रहता हो। उसकी प्रतीति अवश्य परसापेक्ष है, पर स्वरूप तो व्यक्तिनिष्ठ ही है। अतः जैनोके द्वारा माना गया तिर्यक्सामान्य, जिससे कि भिन्न-भिन्न द्रव्योमे सादृश्मूलक अभेदव्यवहार होता है, अनेकानुगत न होकर प्रत्येकमे परिसमाप्त है। इसको निमित्त बनाकर जो अनेक व्यक्तियोंमे अभेद कहा जाता है वह काल्पनिक है, वास्तविक नही ! ऐसी दशामे दही और ऊँटमे अभेदका व्यवहार एक पुद्गलसामान्यकी दृष्टिसे जो किया जा सकता है वह औपचारिक कल्पना है । ऊँट चेतन है और दही अचेतन, अतः उन दोनोमे पुद्गलसामान्यको दृष्टिसे अभेद व्यवहार करना असंगत ही है। ऊँटके शरीरके और दहीके परमाणुओसे रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्त्वरूप सादृश्य मिलाकर अभेदकी कल्पना करके दूषण देना भी उचित नहीं है; क्योंकि इस प्रकारके काल्पनिक अतिप्रसंगसे तो समस्त व्यवहारोंका ही उच्छेद हो जायगा । सादृश्यमूलक स्थूलप्रत्यय तो बौद्ध भी मानते ही है।

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