Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 591
________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५५५ में वही पुरानी विरोधवाली दलील देते है कि “एकधर्मीमें विधि-प्रतिषेधरूप दो विरोधो धर्मोको सम्भावना नहीं है । मुक्तिमें भी अनेकान्त लगनेसे वही मुक्त भी होगा और वही संसारी भी। इसी तरह अनेकान्तमें अनेकान्त माननेसे अनवस्था दूषण आता है।" उन्हें सोचना चाहिये कि जिस प्रकार एक चित्र-अवयवीमें चित्ररूप एक होकर भी अनेक आकारवाला होता है, एक ही पृथिवीत्वादि अपरसामान्य स्वव्यक्तियोंमें अनुगत होनेके कारण सामान्य होकर भी जलादिसे व्यावृत्त होनेसे विशेष भी कहा जाता है और मेचकरत्न एक होकर भी अनेकाकार होता है, उसी तरह एक ही द्रव्य अनेकान्तरूप हो सकता है, उसमें कोई विरोध नहीं है । मुक्तिमें भी अनेकान्त लग सकता है । एक ही आत्मा, जो अनादिसे बद्ध था, वही कर्मबन्धनसे मुक्त हुआ है, अतः उस आत्माको वर्तमान पर्यायकी दृष्टिसे मुक्त तथा अतीतपर्यायोंकी दृष्टि से अमुक्त कह सकते हैं, इसमें क्या विरोध है ? द्रव्य तो अनादि-अनन्त होता है। उसमें त्रैकालिक पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेक व्यवहार हो सकते है । मुक्त कर्मबन्धनसे हुआ है, स्वस्वरूपसे तो वह सदा अमुक्त ( स्वरूपस्थित ) ही है । अनेकान्तमें भी अनेकान्त लगता ही है । नयको अपेक्षा एकान्त है और प्रमाणकी अपेक्षा वस्तुतत्त्व अनेकान्तरूप है । आत्मसिद्धि-प्रकरणमें व्योमशिवाचार्य आत्माको स्वसंवेनप्रत्यक्षका विषय सिद्ध करते हैं। इस प्रकरणमें जब यह प्रश्न हुआ कि 'आत्मा तो कर्ता है वह उसी समय संवेदनका कर्म कैसे हो सकता है ?' तो इन्होंने इसका समाधान अनेकान्तका आश्रय लेकर ही इस प्रकार किया है १. देखो, यही ग्रन्थ पृ० ५२५ । २. “अथात्मनः कर्तृत्वादेकस्मिन् काले कर्मत्वासंभवेनाप्रत्यक्षत्वम् ; तन्न; लक्षणमेदेन तदुपपत्तेः तथाहि-शानचिकीर्षाधारत्वस्य कर्नुलक्षणस्योपपत्तेः कर्तृत्वम् , तदैव च क्रियया व्याप्यत्वोपलव्धेः कर्मत्वं चेति न दोषः. लक्षणतन्त्रत्वाद् वस्तुव्यवस्थायाः।" -प्रश० व्यो० पृ० ३९२ ।

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