Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 567
________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५३१ प्रत्येक दर्शनको उस काल्पनिक अभेद तक पहुँचना चाहिये । पर स्याद्वाद जब वस्तुका विचार कर रहा है, तब वह परमार्थसत् वस्तुको सीमाको कैसे लाँघ सकता है ? ब्रह्मेकवाद न केवल युक्ति-विरुद्ध ही है, किन्तु आजके विज्ञानसे उसके एकीकरणका कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता । विज्ञानने एटमका भी विश्लेषण किया है और प्रत्येक परमाणुकी अपनी मौलिक और स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है । अतः यदि स्याद्वाद वस्तुको अनेकान्तात्मक सीमापर पहुँचाकर बुद्धिको विराम देता है, तो यह उसका भूषण ही है | दिमागी अभेदसे वास्तविक स्थितिकी उपेक्षा करना मनोरंजनसे अधिक महत्त्व की बात नहीं हो सकती । डॉ० देवराजजीने 'पूर्वी और पश्चिमी दर्शन' ( पृ० ६५ ) में 'स्यात् ' शब्दका 'कदाचित् ' अनुवाद किया है । यह भी भ्रमपूर्ण है । कदाचित् शब्द कालापेक्ष है । इसका सीधा अर्थ है - किसी समय । और प्रचलित अर्थमें कदाचित् शब्द एकतरहसे संशयकी ओर ही झुकता है । वस्तुमें अस्तित्व और नास्तित्व धर्म एक ही कालमें रहते हैं, न कि भिन्नकालमें । कदाचित् अस्ति और कदाचित् नास्ति नहीं है, किन्तु सह - एकसाथ अस्ति और नास्ति है । स्यात्का सही और सटीक अर्थ है - 'कथञ्चित् ' अर्थात् एक निश्चित प्रकारसे । यानी अमुक निश्चित दृष्टिकोण से वस्तु 'अस्ति' है और उसी समय द्वितीय निश्चित दृष्टिकोण से 'नास्ति' है, इनमें कालभेद नहीं है । अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ हो सकता है । श्री हनुमन्तराव एम० ए० ने अपने " Jain Instrumental Theory of Knowledge" नामक लेख में लिखा है कि " स्याद्वाद सरल समझौतेका मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्यतक नहीं ले जाता" आदि । ये सब एक ही प्रकारके विचार है जो स्याद्वादके स्वरूपको न समझने या वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेके परिणाम है । वस्तु तो अपने स्थानपर अपने विराट् रूपमें प्रतिष्ठित है, उसमे अनन्तधर्म, जो हमें परस्पर

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