Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 580
________________ जैनदर्शन अनेक संख्यावाली हो जाती है उसी तरह धर्म अतीतादि व्यवहारको प्राप्त हो जाता है, द्रव्य तो एक रहता है । बुद्धदेव अन्यथान्यथिक थे। धर्म पूर्व-परको अपेक्षा अन्य-अन्य कहा जाता है। जैसे एक ही स्त्री माता भी है और पुत्री भी। जिसका पूर्व ही है, अपर नहीं, वह अनागत कहलाता है। जिसका पूर्व भी है और अपर भी, वह वर्तमान; और जिसका अपर ही है, पूर्व नहीं; वह अतीत कहलाता है। ये चारों अस्तिवादी कहे जाते थे। इनके मतोंका विस्तृत विवरण नहीं मिलता कि ये धर्म और अवस्थासे द्रव्यका तादात्म्य मानते थे, या अन्य कोई सम्बन्ध, फिर भी इतना तो पता चलता है कि ये वादी यह अनुभव करते थे कि सर्वथा क्षणिकवादमें लोक-परलोक, कर्म-फलव्यवस्था आदि नहीं वन सकते, अतः किसी रूपमें ध्रौव्य या द्रव्यके स्वीकार किये बिना चारा नहीं है। शान्तरक्षित स्वयं परलोकपरीक्षा में चार्वाकका खंडन करते समय ज्ञानादि-सन्ततिको अनादि-अनन्त स्वीकार करके ही परलोककी व्याख्या करते है । यह ज्ञानादि-सन्ततिका अनाद्यनन्त होना ही तो द्रव्यता या ध्रौव्य है, जो अतीतके संस्कारोंको लेता हआ भविष्यतका कारण बनता जाता है। कर्म-फलसम्बन्धपरीक्षा (पृ० १८४ ) में किन्हीं चित्तोंमें विशिष्ट कार्यकारणभाव मानकर हो स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिके घटानेका जो प्रयास किया गया है वह संस्काराधायक चित्तक्षणोंकी सन्ततिमें ही संभव हो सकता है' यह बात स्वयं शान्तरक्षित भी स्वीकार करते हैं। १. 'उपादानतदादेयभूतज्ञानादिसन्ततेः । काचिन्नियतमर्यादावस्थैव परिकीयते ॥ तस्याश्चानाधनन्तायाः परः पूर्व इहेति च' -तत्त्वसं० श्लो० १८७२-७३ ।

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