Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 579
________________ ५४३ स्याद्वाद-मीमांसा अवक्तव्य कहते हैं। आ० शान्तिरक्षित' स्वयं क्षणिक प्रतीत्यसमुत्पादमें अनाद्यनन्त और असंक्रान्ति विशेषण देकर उसकी सन्ततिनित्यता स्वीकार करते हैं, फिर भी द्रव्यके नित्यानित्यात्मक होनेमें उन्हें विरोधका भय दिखाई देता है ! किमाश्चर्यमतः परम् !! अनन्त स्वलक्षणोंकी परस्पर विविक्तसत्ता मानकर पररूप-नास्तित्वसे नहीं बचा जा सकता । मेचकरत्न या नरसिंहका दृष्टान्त तो स्थूल रूपसे ही दिया जाता है, क्योंकि जब तक मेचकरत्न अनेकाणुओंका कालान्तरस्थायी संघात बना हुआ है और जब तक उनमें विशेष प्रकारका रासायनिक मिश्रण होकर बन्ध है; तब तक मेचकरत्नको, सादृश्यमूलक पुजके रूपमें ही सही, एक सत्ता तो है ही और उसमें उस समय अनेक रूपोंका प्रत्यक्ष दर्शन होता ही है। नरसिंह भी इसी तरह कालान्तरस्थायी संघातके रूपमें एक होकर भी अनेकाकारके रूपमें प्रत्यक्षगोचर होता है। सत्त्वसं० त्रैकाल्यपरीक्षा ( पृ० ५०४ ) में कुछ बौद्धकदेशियोंके मत दिये है, जो त्रिकालवर्ती द्रव्यको स्वीकार करते थे। इनमें भदन्त धर्मत्रात भावान्यथावादी थे। वे द्रव्यमें परिणाम न मानकर भावमें परिणाम मानते थे। जैसे कटक, कुंडल, केयूरादि अवस्थाओंमें परिणाम होता है द्रव्यस्थानीय सुवर्णमें नहीं, उसी तरह धर्मों में अन्यथात्व होता है, द्रव्यमें नहीं। धर्म ही अनागतपनेको छोड़कर वर्तमान बनता है और वर्तमानको छोड़कर अतीतके गह्वरमें चला जाता है। भदन्त घोषक लक्षणान्यथावादी थे । एक ही धर्म अतीतादि लक्षणोंसे युक्त होकर अतीत, अनागत और वर्तमान कहा जाता है। ___ भदन्त वसुमित्र अवस्थान्यथावादी थे। धर्म अतीतादि भिन्न-भिन्न अवस्थाओंको प्राप्त कर अतीतादि कहा जाता है, द्रव्य तो त्रिकालानुयायी रहता है। जैसे एक मिट्टीको गोली भिन्न-भिन्न गोलियोंके ढेरमें पड़कर १. तत्त्वसं० श्लो० ४।

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