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जैनदर्शन
यह विधान यह मानकर किया जाता है कि प्रत्येक शब्द वस्तुके किसी-न-किसी धर्मका वाचक होता है । इसीलिये तत्त्वार्थभाष्य (१।३४) में 'ये नय क्या एक वस्तुके विषयमें परस्पर विरोधी तन्त्रोंके मतवाद है या जैनाचार्योंके हो परस्पर मतभेद हैं ?' इस प्रश्नका समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है कि 'न तो ये तन्त्रान्तरीय मतवाद है और न आचार्योंके ही पारस्परिक मतभेद हैं ?' किन्तु ज्ञेय अर्थको जाननेवाले नाना अध्यवसाय है।' एक ही वस्तुको अपेक्षाभेदसे या अनेक दृष्टिकोणोंसे ग्रहण करनेवाले विकल्प हैं । वे हवाई कल्पनाएँ नहीं है । और न शेखचिल्लोके विचार ही हैं, किन्तु अर्थको नाना प्रकारसे जाननेवाले अभिप्रायविशेष हैं।
ये निविषय न होकर ज्ञान, शब्द या अर्थ किसी-न-किसीको विषय अवश्य करते हैं। इसका विवेक करना ज्ञाताका कार्य है । जैसे एक ही लोक सत्की अपेक्षा एक है, जीव और अजीवके भेदसे तीन, चार प्रकारके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप होनेसे चार; पांच अस्तिकायोंकी अपेक्षा पांच और छह द्रव्योंकी अपेक्षा छह प्रकारका कहा जा सकता है । ये अपेक्षाभेदसे होनेवाले विकल्प हैं, मात्र मतभेद या विवाद नहीं हैं। उसी तरह नयवाद भी अपेक्षाभेदसे होनेवाले वस्तुके विभिन्न अध्यवसाय हैं । दो नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक :
इस तरह सामान्यतया अभिप्रायोंकी अनन्तता होनेपर भी उन्हें दो विभागोंमें बांटा जा सकता है-एक अभेदको ग्रहण करनेवाले और दूसरे भेदको ग्रहण करने वाले । वस्तुमें स्वरूपतः अभेद है, वह अखंड है और अपनेमें एक मौलिक है । उसे अनेक गुण, पर्याय और धर्मोके द्वारा अनेकरूपमें ग्रहण किया जाता है। अभेदग्राहिणी दृष्टि द्रव्यदृष्टि कही जाती है और भेदग्राहिणी दृष्टि पर्यायदृष्टि । द्रव्यको मुख्यरूपसे ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यास्तिक या अव्युच्छित्ति नय कहलाता है और पर्यायको ग्रहण करनेवाला नय पर्यायास्तिक या व्युच्छित्ति नय । अभेद अर्थात् सामान्य