________________
५१४
जैनदर्शन
सहज बुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्तधारणाओंकी सृष्टि ही करना चाहते थे । हाँ, संजय जब अपनी अज्ञानता और अनिश्चय को साफ-साफ शब्दोंमें कह देता है कि 'यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ,' तब बुद्ध अपने जानने न जाननेका उल्लेख न करके उस रहस्यको शिष्योंके लिये अनुपयोगी बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते है। आज तक यह प्रश्न ताकिकोंके सामने ज्यों-का-त्यों है कि बुद्धकी अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवादमें क्या अंतर है, खासकर चित्तको निर्णयभूमिमें ? सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की तरह पल्ला झाड़कर खरी-खरी बात कह देता है और बुद्ध कुशल बड़े आदमियोंकी शालीनताका निर्वाह करते हैं। __बुद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वातावरणमें प्रात्मा, लोक, परलोक और मुक्तिके स्वरूपके सम्बन्धमें सत्, असत्, उभय और अनुभय या अवक्तव्य ये चार कोटियां गूंजती थीं। जिस प्रकार आजका राजनैतिक प्रश्न 'मजदूर और मालिक, शोष्य और शोषकके' द्वन्द्वको छायामें ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समयके आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थविषयक प्रश्न चतुष्कोटिमे ही पूछे जाते थे। वेद और उपनिषद्में इस चतुष्कोटिके दर्शन बराबर होते हैं । 'यह विश्व सत्से हुआ या असत्से ? यह सत् है या असत् या उभय या अनिर्वचनोय' ये प्रश्न जब सहस्रों वर्षसे प्रचलित रहे हैं तब राहुलजीका स्याद्वादके विषयमें यह फतवा दे देना कि 'संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भङ्गीको तोड़-मरोड़कर सप्तभंगी बनी' कहाँ तक उचित है, इसका वे स्वयं विचार करें।
बुद्धके समकालीन जो अन्य पांच तीथिक थे, उनमें निग्गंठ नाथपुत्त वर्धमान-महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें प्रसिद्धि थी। 'वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे, या नहीं यह इस समयकी चरचाका विषय नहीं है, पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक अवश्य थे और किसी भी प्रश्नको संजयको तरह अनिश्चय या विक्षेप कोटिमें और बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमें