________________
प्रमाणमीमासा
२६३ प्रमेयके दो भेद किये हैं- एक विशेष ( स्वलक्षण ) और दूसरा सामान्य ( अन्यापोह ) । विशेषपदार्थको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष है और सामान्यको जाननेवाले अनुमानादि विकल्पज्ञान । इस तरह प्रमेयद्वैविध्यसे प्रमाण - द्वैविध्यको नियत व्यवस्था होनेसे कोई भी प्रमाण जब अपनी विषयमर्यादाको नहीं लाँघ सकता, तब विजातीय प्रमाणकी तो स्वनियत विपयसे भिन्न प्रमेयमें प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती । रह जाती है सजातीय प्रमाणान्तरके संप्लवकी बात, सोद्वितीय क्षणमें जब वह पदार्थ ही नहीं रहता, तब संप्लवको चर्चा अपने आप ही समाप्त हो जाती है ।
जैन पदार्थको एकान्त क्षणिक न मानकर उसे कथञ्चित् नित्य और सामान्यविशेषात्मक मानते हैं । यही पदार्थ सभी प्रमाणोंका विपय होता है । वस्तु अनन्तधर्मवाली है । अमुक ज्ञानके द्वारा वस्तुके अमुक अंशोंका निश्चय होने पर भी अगृहीत अंशोंको जाननेके लिये प्रमाणान्तरको अवकाश है ही । इसी तरह जिन ज्ञात अंशोंका संवाद हो जानेसे निश्चय हो चुका है उन अंशोंमें भले ही प्रमाणान्तर कुछ विशेष परिच्छेद न करें । पर जिन अंशों में असंवाद होनेके कारण अनिश्चय या विपरीत निश्चय है, उनका निश्चय करके तो प्रमाणान्तर विशेषपरिच्छेक होनेसे प्रमाण ही होता है । अकलंकदेवने प्रमाणके लक्षण में 'अनधिगतार्थग्राही' पद दिया है, अतः अनिश्चित अंशके निश्चयमें या निश्चितांश में उपयोगविशेष होने पर ही प्रमाणसंप्लव स्वीकार किया जाता है, जब कि नैयायिकने प्रमाणके लक्षण में ऐसा कोई पद नहीं रखा है, अतः उसकी दृष्टिसे वस्तु गृहीत हो या अगृहीत, यदि इन्द्रियादि कारणकलाप मिलते है तो प्रमाणकी प्रवृत्ति अवश्य ही होगी । उपयोगविशेष हो या न हो, कोई भी ज्ञान
१. 'मानं द्विविधं विपयद्वैविध्यात् |' - प्रमाणवा० २|१| २. 'उपयोगविशेपस्याभावे प्रमाणसंप्लवायानभ्युपगमात् ॥'
- अष्टसह० पृ०४ |