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जैनदर्शन रणके क्षयोपशमसे आती है। फिर शब्दसे होनेवाला अर्थका बोध मानस है और इन्द्रियसे होनेवाला पदार्थका ज्ञान ऐन्द्रियक है । जिस तरह अविनाभावसम्बन्धसे अर्थका बोध करानेवाला अनुमान अस्पष्ट होकर भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण है, उसी तरह वाच्यवाचकसम्बन्धके बलपर अर्थबोध करानेवाला शब्दज्ञान भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण ही होना चाहिये । हाँ, जिस शब्दमें विसंवाद या संशयादि पाये जाय, वह अनुमानाभास और प्रत्यक्षाभासकी तरह शब्दाभास हो सकता है, पर इतने मात्रसे सभी शब्दज्ञानोंको अप्रमाणकोटिमें नहीं डाला जा सकता। कुछ शब्दोंको अर्थव्यभिचारी देखकर सभी शब्दोंको अप्रमाण नहीं ठहराया जा सकता।
यदि शब्द बाह्यार्थमें प्रमाण न हो, तो क्षणिकत्व आदिके प्रतिपादक शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकेंगे। और तब बौद्ध स्वयं अदृष्ट नदी, देश और पर्वतादिका अविसंवादी ज्ञान शब्दोंसे कैसे कर सकेंगे? यदि हेतुवादरूप ( परार्थानुमान ) शब्दके द्वारा अर्थका निश्चय न हो; तो साधन
और साधनाभासकी व्यवस्था कैसी होगी? इसी तरह आप्तके वचनके द्वारा यदि अर्थका बोध न हो; तो आप्त और अनाप्तका भेद कैसे सिद्ध होगा? यदि पुरुषोंके अभिप्रायोंमें विचित्रता होनेके कारण सभी शब्द अर्थव्यभिचारी करार दिये जायँ, तो सुगतके सर्वशास्तृत्वमें कैसे विश्वास किया जा सकेगा? यदि अर्थव्यभिचार होनेके कारण शब्द अर्थमें प्रमाण नहीं हैं; तो अन्य शब्दकी विवक्षामें अन्य शब्दका प्रयोग देखा जानेसे जब विवक्षाव्यभिचार भी होता है, तो उसे विवक्षामें भी प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? जिस तरह सुविवेचित व्याप्य और कार्य अपने व्यापक और १. लघीय० श्लो० २७ । २ लधीय० श्लो० २६ । ३. 'आप्तोक्तेहें तुवादाच्च बहिराविनिश्चये।।
सत्येतरव्यवस्था का साधनेतरता कुतः ॥'-लघी० का० २८ । ४. लघीय० श्लो० २९ ।