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सांख्यतत्त्वमीमांसा
४२५ आकाश, रूपसे अग्नि इत्यादि गुणोंसे गुणीको उत्पत्तिको बात असंगत है । गुण गुणोको पैदा नहीं करता, बल्कि गुणीमें ही नाना गुण अवस्थाभेदसे उत्पन्न होते और विनष्ट होते हैं। घट, सकोरा, सुराहो आदि कार्योंमें मिट्टीका अन्वय देखकर यही तो सिद्ध किया जा सकता है कि इनके उत्पादक परमाणु एक मिट्टी जातिके हैं ।
सत्कार्यवादकी सिद्धिके लिए जो 'असदकरणात्' आदि पांच हेतु दिये हैं, वे सब कथञ्चित् सद्-असद् कार्यवादमें ही सम्भव हो सकते हैं । अर्थात् प्रत्येक कार्य अपने आधारभूत द्रव्यमें शक्तिको दृष्टि से ही सत् कहा जा सकता है, पर्यायकी दृष्टिसे नहीं। यदि पर्यायकी दृष्टिसे भी सत् हो; तो कारणोंका व्यापार निरर्थक हो जाता है। उपादान-उपादेयभाव, शक्य हेतुका शक्यक्रिय कार्यको ही पैदा करना, और कारणकार्यविभाग आदि कथंचित् सत्कार्यवादमें ही संभव है।
त्रिगुणका अन्वय देखकर कार्योंको एक जातिका ही तो माना जा सकता है न कि एक कारणसे उत्पन्न । समस्त पुरुषोंमें परस्पर चेतनत्व और भोक्तृत्व आदि धर्मोका अन्वय देखा जाता है; पर वे सब किसी एक कारणसे उत्पन्न नहीं हुए हैं। प्रधान और पुरुषमें नित्यत्व, सत्त्व आदि धर्मोंका अन्वय होनेपर भी दोनोंकी एक कारणसे उत्पत्ति नहीं मानी जाती। ___ यदि प्रकृति नित्यस्वभाव होकर तत्त्वमृष्टि या भूतसृष्टिमें प्रवृत्त होती है; तो अचेतन प्रकृतिको यह ज्ञान नहीं हो सकता कि इतनी ही तत्त्वसृष्टि होनी चाहिये और यह हो इसका उपकारक है। ऐसी हालतमें नियत प्रवृत्ति नहीं हो सकती । यदि हो, तो प्रवृत्तिका अन्त नहीं आ सकता। 'पुरुषके भोगके लिये मैं सृष्टि करूं' यह ज्ञान भी अचेतन प्रकृतिको कैसे हो सकता है?
वेश्याके दृष्टान्तसे बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था जमाना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वेश्याका संसर्ग उसी पुरुषसे होता है, जो स्वयं उसकी कामना