________________
शब्दाद्वैतवादमीमांसा
४१५ शब्दाद्वैतवादसमीक्षा: पूर्वपक्ष:
'भर्तृहरि आदि वैयाकरण जगतमें मात्र एक 'शब्द' को परमार्थ सत् कहकर समस्त वाच्य-वाचकतत्त्वको उसी शब्दब्रह्मको विवर्त मानते हैं। यद्यपि उपनिषदमें शब्दब्रह्म और परब्रह्मका वर्णन आता है और उसमें यह बताया गया है कि शब्दब्रह्ममें निष्णात व्यक्ति परब्रह्मको प्राप्त करता है। इनका कहना है कि संसारके समस्त ज्ञान शब्दानुविद्ध ही अनुभवमें आते हैं। यदि प्रत्ययोंमें शब्दसंस्पर्श न हो तो उनकी प्रकाशरूपता ही समाप्त हो जायगी। ज्ञानमें वागरूपता शाश्वती है और वही उसका प्राण है । संसारका कोई भी व्यवहार शब्दके बिना नहीं होता। अविद्याके कारण संसारमें नाना प्रकारका भेद-प्रपञ्च दिखाई देता है। वस्तुतः सभी उसी शब्दब्रह्मकी ही पर्यायें है । जैसे एक ही जल वीची, तरंग, बदबद और फेन आदिके आकारको धारण करता है, उसी तरह एक ही शब्दब्रह्म वाच्य-वाचकरूपसे काल्पनिक भेदोंमें विभाजित-सा दिखता है । भेद डालनेवाली अविद्याके नाश होने पर समस्त प्रपञ्चोंसे रहित निर्विकल्प शब्दब्रह्मको प्रतीति हो जाती है। उत्तरपक्ष:
किन्तु इस शब्दब्रह्मवादको प्रक्रिया उसी तरह दूषित है, जिस प्रकार कि पूर्वोक्त ब्रह्माद्वैतवादको। यह ठीक है कि शब्द, ज्ञानके प्रकाश करनेका एक समर्थ माध्यम है और दूसरे तक अपने भावों और विचारोंको बिना शब्दके नहीं भेजा जा सकता। पर इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि जगतमें एक शब्दतत्त्व ही है। कोई बूढ़ा लाठीके बिना नहीं चल सकता
१. 'अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥'-वाक्यप० १११।। २. 'शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।-ब्रह्मबिन्दूप० २२ ।