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पदार्थका स्वरूप
१३७ तरह एक स्वतंत्र पदार्थका सर्वथा उच्छेद स्वीकार करना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है । यद्यपि बुद्धने निर्वाणके स्वरूपके सम्बन्धमें अपना मौन रखकर इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें रखा था, किन्तु आगेके आचाोंने उसकी प्रदीप-निर्वाणको तरह जो व्याख्या की है, उससे निर्वाणका उच्छेदात्मक स्वरूप ही फलित होता है । यथा"दिशं न काञ्चित् विदिशं न काश्चित् ,
नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। दिशं न काश्चित् विदिशं न काञ्चित्
नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । आत्मा तथा निर्वृतिमभ्युपेतः क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥"
-सौन्दरनन्द १६।२८-२६ । अर्थात्-जिस प्रकार बुझा हुआ दीपक न किसी दिशाको जाता है, न विदिशाको, न आकाशको और न पातालको, किन्तु तेलके क्षय हो जाने पर केवल बुझ जाता है, उसी तरह निर्वाण अवस्थामें चित्त न दिशाको जाता है, न विदिशाको, न आकाशको और न पृथ्वोको। वह क्लेशके क्षयसे केवल शान्त हो जाता है। उच्छेदात्मक निर्वाण अप्रातीतिक है :
इस तरह जब उच्छेदात्मक निर्वाणमें चित्तको सन्तान भी समाप्त हो जाती है, तो उस 'मृषा' सन्तानके बलपर संसार अवस्थामें कर्मफलसम्बन्ध, बन्ध, मोक्ष, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान आदिको व्यवस्थाएं बनाना कच्ची नीवपर मकान बनानेके समान हैं। झूठी संतानमें कर्मवासनाका संस्कार