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जैनदर्शन
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परिवर्तन में सहकारी होता है और समस्त लोकाकाशमें घड़ी, घंटा, पल, दिन रात आदि व्यवहारोंमें निमित्त होता है । यह भी अन्य द्रव्योंकी तरह उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य लक्षणवाला है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदिसे रहित होनेके कारण अमूर्तिक है । प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एकएक काल- द्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है । धर्म और अधर्म द्रव्यकी तरह वह लोकाकाशव्यापी एकद्रव्य नहीं है; क्योंकि प्रत्येक आकाशप्रदेशपर समयभेद इसे अनेकद्रव्य माने बिना नहीं बन सकता । लंका और कुरुक्षेत्र में दिन रात आदिका पृथक्-पृथक् व्यवहार तत्तत्स्थानोंके कालभेदके कारण ही होता है । एक अखण्ड द्रव्य मानने पर कालभेद नहीं हो सकता । द्रव्योंमें परत्व - अपरत्व ( लुहरा-जेठा ) आदि व्यवहार कालसे ही होते है । पुरानापन - नयापन भी कालकृत ही है । अतीत, वर्तमान और भविष्य ये व्यवहार भी कालकी क्रमिक पर्यायोंसे होते है । किसी भी पदार्थके परिणमनको अतीत, वर्तमान या भविष्य कहना कालकी अपेक्षासे ही हो सकता है ।
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वंशेषिककी मान्यता :
वैशेषिक कालको एक और व्यापक द्रव्य मानते हैं, परन्तु नित्य और एक द्रव्यमे जब स्वयं अतीतादि भेद नहीं है, तब उसके निमित्तसे अन्य पदार्थों में अतीतादि भेद कैसे नापे जा सकते है ? किसी भी द्रव्यका परिणमन किसी समयमे ही तो होता है। बिना समयके उस परिणमनको अतीत, अनागत या वर्तमान कैसे कहा जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि प्रत्येक आकाश-प्रदेशपर विभिन्न द्रव्योंके जो विलक्षण परिणमन हो रहे है, उनमें एक साधारण निमित्त काल है, जो अणुरूप है और जिसकी समयपर्यायोंके समुदायमें हम घड़ी घंटा आदि स्थूल कालका नाप बनाते हैं । अलोकाकाशमें जो अतीतादि व्यवहार होता है, वह लोकाकाशवर्ती कालके कारण ही । चूँकि लोक और अलोकवर्ती आकाश, एक अखण्ड