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जैनदर्शन
प्रसन्न होता है । यद्यपि इन तीनों कल्पनानोंके पीछे शवदर्शन है, पर व्याख्याएं और कल्पनाएँ जुदी - जुदी है । यद्यपि निर्विकल्पक दर्शन वस्तुके अभावमें नहीं होता और वही दर्शन प्रमाण है जो अर्थसे उत्पन्न होता है । पर प्रश्न यह है कि — कौन दर्शन पदार्थसे उत्पन्न हुआ है या पदार्थको सत्ताका अविनाभावी है ? प्रत्येक दर्शनकार यही कहनेका आदी है किहमारे दर्शनकार ऋषिने आत्मा आदिका उसी प्रकार निर्मल बोधसे साक्षात्कार किया है जैसा कि उनके दर्शनमें वर्णित है । तब यह निर्णय कैसे हो कि- 'अमुक दर्शन वास्तविक अर्थसमुद्भूत है और अमुक दर्शन मात्र कपोलकल्पित ?' अतः दर्शन शब्द की यह निर्विकल्पक रूप व्याख्या भी दर्शनशास्त्र के 'दर्शन' को अपनेमें नहीं बांध पाती ।
दर्शनकी पृष्ठभूमि :
संसारका प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मोंका अखंड मौलिक पिण्ड है । 'पदार्थका विराट् स्वरूप समग्रभावसे वचनोंके आगोचर है । वह सामान्य रूपसे अखंड मौलिककी दृष्टिसे ज्ञानका विषय होकर भी शब्दकी दौड़के बाहर है । केवलज्ञानमें जो वस्तुका स्वरूप झलकता है, उसका अनन्तवाँ भाग ही शब्दके द्वारा प्रज्ञापनीय होता है । और जितना शब्दके द्वारा कहा जाता है उसका अनन्तवाँ भाग श्रुतनिबद्ध होता है । तात्पर्य यह कि - श्रु तनिबद्धरूप दर्शनमें पूर्ण वस्तुके अनन्त धर्मोका समग्रभावसे प्रतिपादन होना शक्य नहीं है । उस अखंड अनन्तधर्मवाली वस्तुको विभिन्न दर्शनकार ऋषियोंने अपने अपने दृष्टिकोण से देखनेका प्रयास किया है और अपने दृष्टिकोणोंको शब्दों में बाँधनेका उपक्रम किया है । जिस प्रकार वस्तुके धर्म अनन्त हैं उसी प्रकार उनके दर्शक दृष्टिकोण भी अनन्त हैं और प्रतिपादनके साघन शब्द भी अनन्त ही हैं । जो दृष्टियाँ वस्तुके स्वरूपका आधार छोड़
१. “परिव्राट् कामुकशुनाम् एकस्यां प्रमदातनौ 1 ari कामिनी भक्ष्यस्तिस्र एता हि कल्पनाः ॥"